शख्सियत

जन्मदिन विशेष: बीना दास और राजगुरु, स्वतंत्रता संग्राम के दो चमकते सितारे, जिनकी क्रांति और बलिदान आज भी करते हैं प्रेरित

राजगुरु का जन्म हरि नारायण और पार्वती देवी के घर 24 अगस्त, 1908 को खेड़ (महाराष्ट्र) में हुआ था। जब वे मात्र 6 साल के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। उनके बड़े भाई दिनकर अपने पिता के आकस्मिक निधन के कारण सरकारी नौकरी में आ गए।

राजगुरु और बीना दास की तस्वीर
राजगुरु और बीना दास की तस्वीर  

24 अगस्त का दिन उन दो महान क्रांतिकारियों को स्मरण करने का दिन है, जिन्होंने अपने प्राण भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिए। इनमें एक थीं निडर और प्रेरणास्रोत वीरांगना बीना दास, और दूसरे थे शहीद शिवराम हरि राजगुरु, जिनकी गाथा आज भी युवाओं में जोश और राष्ट्रभक्ति का संचार करती है।

बीना दास का जन्म 24 अगस्त 1911 को बंगाल में हुआ था। उनका परिवार समाजसेवी था और ब्रह्म समाज से गहरे जुड़ा हुआ था। उनके माता-पिता सामाजिक कार्यकर्ता थे और उनके भाई भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। इस वातावरण में पली-बढ़ीं बीना प्रारंभ से ही राष्ट्रवाद, स्वदेशी आंदोलन और क्रांतिकारी साहित्य से प्रभावित थीं।

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सुभाष चंद्र बोस, जो उनके पिता के छात्र रह चुके थे, अक्सर उनके घर आते थे और अपने विचारों से बीना को गहराई से प्रेरित करते थे। किशोरावस्था से ही बीना ने अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध करना शुरू कर दिया था।

एक घटना का उल्लेख संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर मिलता है, जब अंग्रेज वायसरॉय की पत्नी उनके स्कूल में आईं, तो छात्रों से उनके स्वागत के लिए चरणों में फूल बिछाने को कहा गया। बीना ने इसे अपमानजनक माना और विरोध स्वरूप पूर्वाभ्यास छोड़कर चली गईं। उसी दिन उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का संकल्प लिया।

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1920 के दशक के अंत में जब साइमन कमीशन के खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, बीना दास बेथ्यून कॉलेज की छात्रा थीं। उन्होंने अपनी बहन कल्याणी दास द्वारा गठित छात्राओं की संस्था 'छात्री संघ' में भाग लिया, जहां महिलाओं को आत्मरक्षा और लाठी चलाना सिखाया जाता था। अपने संस्मरण में बीना ने लिखा, "बंगाल के युवा आगे आए, घातक हथियारों और आंखों में विद्रोह की आग के साथ, वे मौत को मात देने वाले अभिमान के साथ उभरे। इसका उद्देश्य अत्याचारी को उसके अत्याचारों के बारे में अवगत कराना था।"

 वे भूमिगत क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गईं और डायोसीसन कॉलेज में स्थानांतरित हो गईं। "करो या मरो" का भाव, जो 1942 में एक आंदोलन का नारा बना, उससे बहुत पहले बंगाल की युवा पीढ़ी "करेंगे या मरेंगे," इसी विचारधारा से प्रेरित होकर संघर्षरत थी।

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6 फरवरी 1932 को, जब उन्हें पता चला कि बंगाल के राज्यपाल सर स्टेनली जैक्सन कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आने वाले हैं, तो उन्होंने विरोध का निर्णय लिया। अपनी सहयोगी कमला दासगुप्ता से एक रिवॉल्वर मंगवाया और समारोह के दौरान राज्यपाल पर 5 गोलियां चलाईं। हालांकि, राज्यपाल को मारने का उनका प्रयास विफल रहा, लेकिन उनके इस साहसी कार्य ने राष्ट्र पर एक अमिट छाप छोड़ी।

उन्हें 9 वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई, जहां उन्हें अमानवीय यातनाओं का सामना करना पड़ा। किंतु उन्होंने कभी भी अपने सहयोगियों का नाम उजागर नहीं किया। जेल से रिहा होने के बाद भी वे आंदोलन से पीछे नहीं हटीं। उन्होंने कांग्रेस में शामिल होकर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई विरोध प्रदर्शन आयोजित किए, जिसके लिए उन्हें फिर से जेल जाना पड़ा।

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उनके अतुलनीय योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें 1960 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया। 26 दिसंबर 1986 को उनका निधन हुआ।

इसी तरह, राजगुरु वह क्रांतिकारी थे, जिनके सीने में हिंदुस्तान की स्वतंत्रता की ज्वाला भड़क रही थी।

"मैं दुनिया से चला जाऊंगा, परंतु मेरी मौत देश में एक नई क्रांति को जन्म देगी। मैं फिर आऊंगा और तब तक बार-बार आता रहूंगा, जब तक मेरा देश गुलामी की बेडियों से आजाद नहीं हो जाता। यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, मेरी मौत से हजारों राजगुरु उठ खड़े होंगे, जो ब्रिटिश सरकार को भारत से उखाड़ फेंकेंगे।” यह राजगुरु के शब्द थे। प्रवीण भल्ला की पुस्तक 'शहीद-ए-वतन राजगुरु' में यह एक प्रसंग मिलता है।

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राजगुरु का जन्म हरि नारायण और पार्वती देवी के घर 24 अगस्त, 1908 को खेड़ (महाराष्ट्र) में हुआ था। जब वे मात्र 6 साल के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। उनके बड़े भाई दिनकर अपने पिता के आकस्मिक निधन के कारण सरकारी नौकरी में आ गए। शिवराम एक मेधावी बालक थे। उन्हें संस्कृत में महारत हासिल थी और वे एक प्रशिक्षित पहलवान थे।

राजगुरु ने अपनी युवावस्था में ही स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित होने का निश्चय कर लिया था। राजगुरु ने 16 साल की आयु में देशभक्ति के जोश और अत्याचारी ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा के साथ घर छोड़ दिया। चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह- राजगुरु के क्रांतिकारी जीवन में ये दोनों उनके महान आदर्श-पुरुष थे। यही कारण है कि वे जीवनपर्यंत उनका अनुसरण करते रहे।

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प्रवीण भल्ला की 'शहीद ए वतन राजगुरु' किताब में लिखते हैं, "एक बार भगत सिंह ने कहा था- 'राजगुरु मेरा सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है, लेकिन वस्तुतः यह आत्म-बलिदान की होड़ है, उसमें ईर्ष्या या स्वार्थ का जरा भी अंश नहीं है। वह मासूम बच्चे की तरह निच्छल है। यदि सत्य कहूं तो उस जैसा मित्र मुझे जीवन में कभी नहीं मिल सकता। वह यारों का भी यार है।"

राजगुरु के संदर्भ में उनका कितना सटीक आकलन था। उन्होंने भगत सिंह के साथ मित्रता की तो उसे जीवन के अंतिम क्षणों तक निभाया। बात चाहे सांडर्स हत्या की हो, योगेश चंद्र को छुड़वाने की हो या असेंबली में बम फेंकने की हो, राजगुरु हर बार शहीदों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होने के लिए उत्सुक रहे।

राजगुरु का क्रांतिकारी उत्साह किसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम नहीं था, बल्कि यह देश के लिए मर-मिटने की भावना से प्रेरित था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और सुखदेव के साथ राजगुरु को फांसी दे दी गई। उनके बलिदान ने पूरे देश को झकझोर दिया और आने वाली पीढ़ियों को आज़ादी के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।

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