कॉमरेड वीएस अच्युतानंदन का सोमवार को तिरुवनंतपुरम में एक निजी अस्पताल में 101 साल की उम्र में निधन हो गया। अच्युतानंदन अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक एक कट्टर मार्क्सवादी रहे और उन्हें मजदूर वर्ग की पृष्ठिभूमि से निकला भारत का ऐसा पहला कम्युनिस्ट नेता होने का गौरव प्राप्त है, जिसने अपने अथक प्रयास से दर्जी की दुकान से केरल के मुख्यमंत्री पद तक का सफर तय किया। वह अपनी तीखी बयानबाजी, भ्रष्टाचार विरोधी रुख और सामाजिक न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे।
वर्ष 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) के संस्थापक सदस्य रहे अच्युतानंदन का जीवन अथक संघर्ष से परिभाषित था- जाति और वर्ग-बद्ध समाज में व्याप्त अन्याय और अपनी ही पार्टी के भीतर धीरे-धीरे पनपते ‘संशोधनवाद’ के विरुद्ध।जहां उनके साथी ईएमएस नंबूदरीपाद, ज्योति बसु और ईके नयनार विशेषाधिकार प्राप्त उच्च-जाति के परिवारों से आते थे और साम्यवाद की तरफ आकर्षित हुए थे, वहीं अच्युतानंदन ने उस असमानता को जिया जिसके विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया।
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अच्युतानंदन को उनकी पार्टी के सहकर्मी और यहां तक कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी प्यार से कॉमरेड ‘वीएस’ के नाम से जानते थे। उनका जीवन घटनाओं के लिहाज से विविधतापूर्ण था। एक बार मजदूरों के अधिकारों के लिए आजादी से पहले किए गए संघर्ष के दौरान उनकी पुलिस ने इस कदर पिटाई की थी कि उन्हें मृत समझकर दफनाने की तैयारी कर ली गई थी, लेकिन वह बच गए।
उन्होंने अपने ऊपर हमला करने वालों को चुनौती दी और केरल की सबसे कद्दावर राजनीतिक हस्तियों में से एक बन गए। वह आठ दशकों से भी अधिक समय तक हमेशा मजदूरों, किसानों और गरीबों के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहे। उपनिवेशवाद-विरोधी प्रतिरोध, वर्ग संघर्ष और भारतीय वामपंथ के जटिल और अकसर अशांत रास्ते ने उनकी राजनीति को आकार दिया।
केरल के अलप्पुझा जिले के पुन्नपरा गांव में 20 अक्टूबर 1923 को जन्मे और सातवीं कक्षा तक शिक्षित अच्युतानंदन का राजनीतिक जागरण कम उम्र में ही शुरू हो गया था। उन्होंने ‘ट्रेड यूनियन’ में अपनी सक्रियता के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया, 1939 में प्रदेश कांग्रेस में शामिल हुए और एक साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनकर मार्क्सवाद को अपनाया।
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राजनीतिक जीवन के दौरान उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता के बाद के अशांत वर्षों के दौरान, उन्होंने साढ़े पांच साल जेल में बिताए और गिरफ्तारी से बचने के लिए साढ़े चार साल भूमिगत रहे। वह 1964 में उन 32 प्रमुख नेताओं में से एक थे, जिन्होंने वैचारिक मतभेद के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) से अलग होकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) का गठन किया। इस निर्णायक पल में भी उनकी भूमिका केरल में सीपीएम की पहचान की आधारशिला बनी रही।
अच्युतानंदन ने 1980 से 1992 तक सीपीएम की केरल प्रदेश समिति के सचिव के रूप में कार्य किया और पार्टी की रणनीति और जनाधार को आकार देने में मदद की। वह चार बार (1967, 1970, 1991 और 2001 में) केरल विधानसभा के लिए चुने गए और दो बार नेता प्रतिपक्ष रहे-पहली बार 1992 से 1996 तक और फिर 2001 से 2005 तक।
वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में अपने गृह क्षेत्र मरारीकुलम में पार्टी के अंदरूनी विवादों के कारण मिली हार और मुख्यमंत्री पद से वंचित रहने सहित कई असफलताओं के बावजूद अच्युतानंदन वामपंथ के एक प्रिय और अडिग नेता बने रहे। वह अपनी तीखी बयानबाजी, भ्रष्टाचार विरोधी रुख और सामाजिक न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे।
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अच्युतानंदन का सफर एक दर्जी की दुकान में सहायक के रूप में शुरू हुआ, लेकिन इसके बाद पार्टी के भीतर और बाहर जनता के हितों की लड़ाई लड़ते हुए 2006 में राज्य का मुख्यमंत्री बनने तक उन्होंने अथक संघर्ष किया। विपक्ष के नेता के रूप में उन्होंने जमीन हड़पने और ‘रियल एस्टेट’ से जुड़े समूह के खिलाफ एक मजबूत अभियान चलाया और विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों का समर्थन हासिल किया।
सीपीएम के भीतर एक प्रखर संगठनकर्ता अच्युतानंदन कभी भी विरोध से नहीं डरते थे, चाहे वे राजनीतिक विरोधी रहे हों या अपनी ही पार्टी के भीतर के प्रतिद्वंद्वी रहे हों, जिनमें सबसे प्रमुख नाम पोलित ब्यूरो के सदस्य और वर्तमान मुख्यमंत्री पिनराई विजयन का है।
वर्ष 1996 के केरल विधानसभा चुनाव में सीपीएम के नेतृत्व वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) ने जीत हासिल की। अच्युतानंदन मारारिकुलम में हार गए, जो लंबे समय से उनका गढ़ माने जाने वाले निर्वाचन क्षेत्र में एक चौंकाने वाली हार थी। इस हार के लिए व्यापक रूप से मार्क्सवादी पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वियों की गुटबाजी को जिम्मेदार ठहराया गया था।
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उस समय कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने यह कहते हुए अच्युतानंदन को खारिज कर दिया था कि पार्टी और केरल की राजनीति में उनकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन यह बात गलत साबित हुई। उन्होंने संघर्ष करके वापसी की, पार्टी में अपनी स्थिति फिर से बनाई और पहले से कहीं अधिक मजबूत एवं लोकप्रिय नेता के रूप में लौटे।
जनता के बीच अच्युतानंदन की गहरी लोकप्रियता के कारण उनकी पार्टी को कई बार मुश्किल स्थिति का भी सामना करना पड़ा। विजयन के नेतृत्व वाली पार्टी में शक्तिशाली कन्नूर लॉबी के विरोध के बावजूद सीपीएम को 2006 और 2011 के विधानसभा चुनाव में अच्युतानंदन को मैदान में उतारने के लिए मजबूर होना पड़ा।
अच्युतानंदन ने 2006 से 2011 तक एलडीएफ सरकार का नेतृत्व किया, जबकि उनकी अपनी पार्टी के कुछ लोग उन्हें दरकिनार करने की कोशिश करते रहे। उनके कार्यकाल की पहचान भ्रष्टाचार के प्रति कड़े रुख, पारदर्शिता पर जोर देने और आम लोगों की मदद के लिए कल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने से है।
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वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में सीपीएम ने एक बार फिर अच्युतानंदन की ओर रुख किया और उन्हें अपने अभियान का चेहरा बनाया। अपनी उम्र के बावजूद उन्होंने पूरे राज्य में जोश के साथ यात्रा की, अपनी विशिष्ट शैली में जोशीले भाषण दिए और वामपंथियों के लिए समर्थन जुटाया। अच्युतानंदन अपनी बोलचाल की शैली और मजाकिया राजनीतिक बयानों के लिए भी जाने जाते थे।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने सोमवार को केरल में वामपंथी आंदोलन के पुरोधा वी.एस. अच्युतानंदन को एक सर्वप्रिय जननेता बताया, जो सिद्धांतवादी राजनीति और जनसेवा की भावना के प्रतीक थे। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘कॉमरेड वी.एस. अच्युतानंदन अपने पीछे एक क्रांतिकारी विरासत छोड़ गए हैं जो केरल की राजनीतिक चेतना में गहराई से अंकित है। उनके परिवार, पार्टी कार्यकर्ताओं और केरल के लोगों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना, जो एक सच्चे महापुरुष के निधन पर शोक मना रहे हैं।’’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी, बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक, प्रदेश सीपीएमसचिव सुरेश पुजारी और कई राजनीतिक नेताओं ने अच्युतानंदन के निधन पर शोक व्यक्त किया।माझी ने ‘एक्स’ पर कहा, ‘‘केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन के निधन के बारे में सुनकर दुख हुआ। उनके परिवार और प्रशंसकों के प्रति हार्दिक संवेदना। महाप्रभु जगन्नाथ उन्हें शांति प्रदान करें। ओम शांति।’’
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