सांप्रदायिक सौहार्द पर थप्पड़ों की गूंज: देश-समाज में फैलते ज़हर का आखिर क्या करें...

एक बच्ची के इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है कि “अगर मुजफ़्फरनगर में मंसूरपुर के इस खुब्बापूर गांव का यह बच्चा अगर विवेक या रमेश रहा होता और टीचर कोई सकीना या जुलेखा, हमारे समाज और सत्ता का क्या तब भी ऐसा ही रफ़ा-दफ़ा करो वाला चरित्र होता?”

एक प्रदर्शन के दौरान दिखाए गए पोस्टर (फोटो - सोशल मीडिया)
एक प्रदर्शन के दौरान दिखाए गए पोस्टर (फोटो - सोशल मीडिया)
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नागेन्द्र

समाज में घटित हो रहे को जब हम यूं ही, या होता है कहकर, टालने या नजरंदाज करने लगते हैं तो वैसे आचरण या घटनाएं बढ़ जाती हैं, जिन्हें अन्यथा नहीं होना चाहिए। ये घटनाएं कभी इस घटना के तौर पर आती हैं, कभी उस घटना के तौर पर। सबकुछ इसलिए होता या चलता रहता है कि समाज के एक बड़े तबके ने बोलना छोड़ दिया है। जबकि बोलना बहुत जरूरी है। हिजाब से लेकर लव जेहाद, संस्कृत आचार्य के पद पर एक सुपात्र मुस्लिम की नियुक्ति से लेकर मुजफ़्फरनगर के स्कूल में एक छात्र के गाल पर उसी कक्षा के अन्य छात्रों से खुद शिक्षिका द्वारा लगवाए गए थप्पड़ यही कहानी दोहरा रहे हैं।

यह देश और समाज में फैले उसी जहर के असर की परिणति है कि- कुछ भी कर लें, कोई कुछ कहेगा नहीं! यह ‘कोई कुछ नहीं कहेगा’ ही असली नब्ज है, जिसकी पड़ताल की जरूरत है। इस पड़ताल की जरूरत है कि वे नहीं कह रहे जिन्हें कहना ही चाहिए, लेकिन हम क्यों नहीं कह रहे जिनका बोलना अब बहुत जरूरी हो चुका है। 

मुजफ़्फरनगर के स्कूल में एक मुस्लिम छात्र के साथ हुई घटना को एक अकेली घटना के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। यह मंच से ‘गोली मारो सालों को’, ‘कपड़ों से पहचान लेते हैं’, बरेली से लेकर विदिशा तक मदरसे में पढ़ाई जाने वाली इक़बाल की कालजयी नज़्म ‘लब पे आती है दुआ, बनके तमन्ना मेरी’ पर मचे हंगामे और इसे रोक दिए जाने, बनारस की विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी बीएचयू की सारी अर्हताएं पास कर आचार्य बने फ़ीरोज़ खान को परिसर छोड़ चले जाने की हद तक मचे हंगामे पर हमारी खमोशी की परिणति है।

यह उसी खमोशी की परिणति है जिसने हमें इतना बौना बना दिया है कि अब हम किसी बात पर प्रतिक्रिया नहीं देते। हम अपने बड़े-बुजुर्गों के साथ पड़ोस के पार्क में उनकी छोटी सी समझाने के अंदाज में कही गई बात पर हुई बेअदबी पर भी चुप्पी ओढ़ लेते हैं और ऐसी किसी घटना में बचकर बगल से निकल जाने में ही ‘भलाई’ समझने लगे हैं। आख़िर बुजदिली को भलाई समझने लगने की हद तक यह बदलाव आया कैसे। कब आया। क्या अचानक रातों-रात आया। शायद नहीं!


हम ऐसे तो न थे...

2019 के वे अंतिम दिन थे। शायद नवंबर था। बीएचयू के छात्रों को किसी फ़ीरोज़ खान नाम के शख्स से संस्कृत पढ़ना रास नहीं आया था और उन्होंने इतना हंगामा मचाया था कि फ़ीरोज़ परिसर छोड़कर ही चले गए। आज कहां हैं, बताने वाला मुझे तो नहीं मिला कोई! यह वही फ़ीरोज़ खान थे जिन्होंने शुरू से अपनी पढ़ाई संस्कृत में इस तरह की थी कि सारी शर्तें पूरी करते हुए आगे बढ़े, बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए आवेदन किया, इंटरव्यू हुआ और विश्वविद्यालय के पैनल ने अंतिम रूप से आचार्य के पद हेतु चयन भी कर लिया।

एक मुस्लिम के संस्कृत विद्या धर्म पढ़ाने को लेकर छात्रों ने किन्ही इशारों पर इस कदर हंगामा किया कि फ़ीरोज़ को परिसर छोड़कर चले जाना पड़ा। लेकिन कुलपति से लेकर यूपी के सत्ता शीर्ष और बनारस के एमपी से पीएम बने मोदी जी के वाराणसी कैम्प कार्यालय तक से कोई यह कहने नहीं आया कि सब कुछ नियम सम्मत है, तो फिर यह हंगामा क्यूं? कोई यह बताने नहीं आगे आया कि संविधान से संचालित इस देश में सनातन और गैर सनातन के नाम पर यह सब न सिर्फ कुतर्क बल्कि घोर अवैज्ञानिक भी है।

कौन 'शिकार' और कौन 'शिकारी' !

फ़ीरोज़ खान का मामला महज एक उदाहारण है, मौजूदा दौर में देश और समाज में फैलते जहर का नमूना देखने के लिए। इसलिए भी ज्यादा मौजू कि यहां ‘शिकार’ और ‘शिकारी’ सब पढ़े लिखे, बल्कि विद्वान थे। ज्यादा सच होगा यह कहना कि यह सब विद्वानों के इशारे पर ही हुआ होगा! वैसे भी हाल के दिनों, बल्कि हाल के कुछ वर्षों में जो भी घटनाएं सामने आयी हों, उनका शिकार जैसे भी लोग बने होंगे, वह सब करने-करवाने या हवा देने वाले कम से कम अनपढ़ तो नहीं ही थे।

वह चाहे किसी पहलू खान का मामला हो, अख़लाक़ का, सड़कों पर गोरक्षा के नाम पर कुछ भी कर गुजरने का या ट्रेन में अर्धसैनिक बल के किसी जवान द्वारा गिन-गिनकर कुछ दूसरे धर्म वालों को गोली मार देने का, मुस्लिम युवक के हिन्दू लड़की से शादी को ‘लव जेहाद’ और हिन्दू लड़के के मुस्लिम लड़की से शादी को ‘शुद्धीकरण’ बना देने के मामले रहे हों या मुस्लिम लड़की के चेहरा ढकने को हिजाब और हिन्दू लड़की के उसी तरह चेहरा ढकने को स्कार्फ़ नाम देने जैसे पागलपन के मामले।  


लखनऊ के लुलु मॉल की ऊपरी मंज़िल पर एक खाली कोने में चंद युवकों के नमाज पढ़ लेने पर मचा हंगामा रहा हो या किसी रिहायशी आपार्टमेंट के आरडब्ल्यूए द्वारा किसी मुस्लिम को मकान किराए पर ही नहीं, उसे बेचने पर भी बीच में रोड़ा बनकर खड़े हो जाने जैसे मामले। दमोह (मप्र) के स्कूल में स्कार्फ़ पहनने के आदेश को हिजाब का नाम देकर हंगामा मचाने और फिर स्कूल पर बुलडोज़र चलवा देने का मामला हो या बांदा में लड़की से छेड़खानी करने वाले का घर बुलडोजर से ढाह देने का मामला। फेहरिस्त बहुत लम्बी है, इरादों की सूची उससे भी लम्बी। 

लेकिन मुजफ़्फरनगर के स्कूल में एक मुस्लिम छात्र के गाल पर अन्य हिन्दू छात्रों से थप्पड़ लगवाने वाली शिक्षिका न तो गिरफ़्तार होती है न उसके आसपास कोई बुलडोज़र भी फटकता है। बल्कि उसको तो बचाने वाले आगे आ गए हैं। यह बचाना, मूल घटना से भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है। बचाने वाले कहने लगे शिक्षिका विकलांग है, लेकिन उन्हें यह नहीं दिखा कि शारीरिक विकलांगता से ज्यादा वह मानसिक विकलांगता की शिकार है। ऐसी विकलांगता जो पीढ़ियों को बीमार कर सकती है और जिसका इलाज जेल में ही संभव है। लेकिन उसपर अत्यंत मामूली, मौक़े से ही ज़मानत देने वाली धाराएं लगाई गयीं, जबकि यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह के शब्दों में कहें तो “उस पर तो स्वतः संज्ञान लेकर जघन्यतम अपराध की धाराओं में मुकदमा दर्ज कर तत्काल जेल भेज देना था, क्योंकि यह एक शिक्षिका के दिव्यांग होने का नहीं उसके उगले जहर के असर से पूरे समाज के बीमार हो जाने का मामला भी है”।

क्यों अलग है मुजफ्फरनगर की घटना...

इसे अलग तरह से और ज्यादा गंभीरता से इसलिए भी देखे जाने की जरूरत है कि यह एक स्कूल और शिक्षक का मामला है। जहां से शिक्षा और संस्कार की नींव पड़ती है। स्कूलों में यूनीफार्म की अवधारणा ही इसलिए आयी कि एक जैसा परिधान तमाम भेद मिटा देता है। सच यही है कि शहर के पुराने इलाके में पैदाइश और शुरुआती पच्चीस साल उसी इलाके में बिताने के बावजूद हमें कभी हिन्दू-मुस्लिम का अहसास नहीं हुआ।

मेरे दोनों बच्चों को भी उनके धर्म और उनकी जाति का अहसास उस वक्त हुआ जब वह आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर के हॉस्टल में रहने गए। उन्हें अचानक वहीं अहसास हुआ कि 11 साल से उनके साथ पढ़ रहे मुकीद या सकीना मुसलमान हैं और यह भी कि जाति क्या होती है। सुखद बस इतना है कि इन बच्चों के हलक से कोई जहर नीचे नहीं उतरा और मुकीद या सकीना या ऐसे कई पुराने दोस्त अब भी दोस्त बने हुए हैं, बल्कि गहरे हो गए हैं। 

मुज़फ़्फ़रनगर के स्कूल की इस घटना को इसलिए भी अलग तरह देखे जाने की जरूरत है क्योंकि यह एक पीढ़ी या पीढ़ियों के बनने-बिगड़ने का मामला भी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि यहां सवाल सिर्फ उस बच्चे का नहीं है जिसे पिटवाया गया (उसका मुस्लिम या हिन्दू होना यहां गौड़ है), उन बच्चों का भी है जिनसे उसे थप्पड़ लगवाए गये। सवाल उस जहर का है जो इन थप्पड़ों के जरिए उन ‘हिन्दू’ बच्चों के मन-मस्तिष्क में हमेशा-हमेशा के लिए बो दिया गया। सवाल उस जहर का है जिसे वह बच्चा तो कभी अपने जहन से निकाल नहीं सकेगा और यह भी कि ये बाकी बच्चे भी कहीं आगे की अपनी राह उन्हीं थप्पड़ों में छिपे संदेश के सहारे तो नहीं तय कर जायेंगे।


एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके जगमोहन सिंह राजपूत भी एक न्यूज़ चैनल से बातचीत में कहते हैं: “मैं शर्मिंदा हूं कि मैंने अपने जीवन के लगभग छह दशक जिस शिक्षा के क्षेत्र में लगा दिये, उस शिक्षा का आज ये हाल है।” राजपूत इसके लिए शिक्षा व्यवस्था के उस ढांचे को दोषी मानते हैं जहां डिग्रियां थोक के भाव में खरीदी-बेची जा रही हैं और जिनके बल पर तृप्ता त्यागी जैसे लोग शिक्षा में आ रहे हैं। 

लेकिन राजपूत के पास शायद इंटर में पढ़ने वाली विशाखा के उस सवाल का जवाब न हो कि “अगर मुजफ़्फरनगर में मंसूरपुर के इस खुब्बापूर गांव का यह बच्चा अगर विवेक या रमेश रहा होता और टीचर कोई सकीना या जुलेखा, हमारे समाज और सत्ता का क्या तब भी ऐसा ही रफ़ा-दफ़ा करो वाला चरित्र होता।”

इस सवाल में तमाम अन्य सवाल छुपे हुए हैं। वह सवाल भी कि गाल पर थप्पड़ खाने वाला अगर मेरा बच्चा होता तो मैं किस तरह सोच या रिएक्ट कर रहा होता!

सवाल तो और भी बहुत सारे हैं।

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