दुनिया

पाकिस्तान में पर्यावरणवादियों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है

2022 में पाकिस्तान में आई बाढ़ ने सरकार पर जलवायु परिवर्तन से लड़ने का दबाव बढ़ा दिया है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम कर रहे कई कार्यकर्ताओं को अतीत में इसके लिए सरकारी कोपभाजन का शिकार होना पड़ा है।

फोटो: Getty Images
फोटो: Getty Images 

बाबा जान एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम बन गए हैं। साल 2010 और 2011 में बाढ़ पीड़ितों को मुआवजा दिलाने के लिए उन्होंने अभियान चलाया था और इस तरह लोगों का ध्यान उनकी ओर गया। बाद में उन्हें ‘आतंकवाद' के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया और करीब एक दशक बाद साल 2020 में वो जेल से छूटकर बाहर आए।

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बाबा जान और उनकी तरह करीब एक दर्जन अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल से तभी आजादी मिली जब उनके परिवार वालों ने करीब एक हफ्ते तक धरना दिया। 45 वर्षीय जान अब गिलगिट-बाल्टिस्तान क्षेत्र में अवामी वर्कर्स पार्टी के अध्यक्ष हैं।

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सामाजिक कार्यकर्ता ‘क्रांतिकारी' परिवर्तन चाहते हैं

पाकिस्तान मौसम के बदलते मिजाज के प्रति बहुत संवेदनशील है इसकी गिनती दुनिया के उन 10 देशों में होती है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। पिछली गर्मियों में देश में आई विनाशकारी बाढ़ ने निश्चित तौर पर इस खतरे को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है।

गिलगिट-बाल्टिस्तान क्षेत्र यानी जीबी संवैधानिक रूप से पाकिस्तान का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह एक वास्तविक प्रांत का दर्जा वाला एक प्रशासनिक क्षेत्र है। यहां का पारिस्थितिकी तंत्र इस लिहाज से अद्वितीय है कि दुनिया के कुछ सबसे ऊंचे पहाड़ इसी क्षेत्र में आते हैं जिनमें K2 जैसी विशाल चोटी भी शामिल है।

बाबा जान जैसे कार्यकर्ताओं का कहना है कि राजनीतिक दल अक्सर बोलने वालों को चुप कराने और उन्हें बदनाम करने का प्रयास करते हैं।

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डीडब्ल्यू से बातचीत में बाबा जान कहते हैं, "मैं पूंजीवाद के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन के खिलाफ काम कर रहा हूं जो कि विनाश और असमानता का कारण बन रहा है। हम राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव चाहते हैं क्योंकि मौजूदा व्यवस्था हमें हमारे घरों से दूर कर दे रही है।”

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वकील यासिर अब्बास जीबी के मुख्यमंत्री के समन्वयक के रूप में काम करते हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं कि बाबा जान और अन्य प्रदर्शनकारियों के खिलाफ मामले को ‘गलत तरीके से संभाला गया था' और जान को सजा मिली, वो उसके हकदार नहीं थे। अब्बास कई सतत अभियानों की ओर भी इशारा करते हैं जिनमें वर्तमान जीबी सरकार निवेश कर रही है। वो उम्मीद जताते हैं कि युवाओं की बढ़ती संख्या के कारण जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में आने वाले दिनों में बेहतर कार्यकर्ता मिलेंगे।

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अट्टम झील- जलवायु आपदा से सपनों की मंजिल तक

जान ने जनवरी 2010 में अट्टाबाद झील आपदा की घटना के बाद सामाजिक सक्रियता पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया, जब हुंजा घाटी में अट्टाबाद गांव में भारी भूस्खलन हुआ जिसमें 20 लोग मारे गए और 6,000 से ज्यादा ग्रामीण बेघर हो गए।

इसके बाद आई विनाशकारी बाढ़ के बाद जान ने सत्ता में बैठे लोगों की आलोचना करने और बाढ़ पीड़ितों के लिए घोषित मुआवजे को दिलाने और उसमें हुए घाल-मेल को उजागर करने का काम शुरू किया।

आज झील के इस काले इतिहास को लगभग भुला दिया गया है। यह एक प्रीमियम हॉलिडे डेस्टिनेशन बन गया है और पूरा इलाका होटलों से घिरा हुआ है। लेकिन पर्यावरण और सामाजिक कार्यकर्ता बेहद सतर्क रहते हैं।

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जान कहते हैं, "आर्थिक प्रगति ही एकमात्र प्रगति नहीं है. ये बड़े होटल गिलगिट-बाल्टिस्तान के लोगों के लिए नहीं हैं क्योंकि ये व्यवसायी केवल अपने लिए मुनाफा कमा रहे हैं और हमारे पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट कर रहे हैं। इससे हमारे बच्चों का जीवन और कठिन हो जाएगा।”

जान की चिंता इस बात को लेकर है कि अट्टाबाद झील में हो रहा अनियंत्रित विकास भविष्य में और भी कई जलवायु आपदाओं की वजह बन सकता है।

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क्लाइमेट एक्शन पाकिस्तान के सह-संस्थापक अनम राठौर, अट्टाबाद झील को एक प्रमुख उदाहरण के रूप में देखते हैं कि कैसे कॉर्पोरेट के हित जीबी क्षेत्र में ‘सामुदायिक आर्थिक उत्थान' और ‘टिकाऊ पर्यटन' की आड़ में विकास परियोजनाओं को चमका रहे हैं।

जान, राठौर और उनके जैसे अन्य पर्यावरण प्रेमी विकास योजना के दौरान स्वदेशी ज्ञान और संस्कृति के साथ-साथ पारंपरिक कानूनों और प्रथाओं की वापसी की मांग कर रहे हैं।

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जलवायु संरक्षण की 'अपनी कीमत है'

एक्टिविस्ट परवेज अली भी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अपने रुख को समझाने के लिए साल 2010 की बात करते हैं। यह वह वर्ष था जब जीबी में गीजर जिले में अचानक आई बाढ़ ने उनके पूरे गांव को खत्म कर दिया। इस बाढ़ के कारण उन्हें और उनके परिवार को जलवायु शरणार्थी बनना पड़ा. वे उस वक्त सात वर्ष के थे।

अब वो 19 साल के हैं और उन्हें पता है कि साल 2022 की बाढ़ के कारण 3.3 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। अब उन्हें अपने देश के ‘फ्राइडे फॉर फ्यूचर मूवमेंट' जैसे कार्यक्रमों का समन्वय करने और पिछले साल नवंबर में हुए COP27 जलवायु शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करने का अनुभव है और इस अनुभव के आधार पर वो इस बात को स्वीकार करते हैं कि जलवायु कार्यकर्ताओं पर दबाव रहता है।

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डीडब्ल्यू से बातचीत में अली कहते हैं, "जीबी क्षेत्र में रहने वाले हमेशा जोखिम में रहते हैं। मुझे निजी नंबरों से धमकियां मिल रही हैं। मुझे क्लाइमेट डिफेंडर्स से मदद लेनी पड़ी जो खतरे की स्थिति में कार्यकर्ताओं की मदद करते हैं। पाकिस्तान में यदि आप शक्तिशाली ताकतों के खिलाफ और जन समुदाय के हित में बात कर रहे हैं तो फिर इसकी सक्रियता की कीम चुकानी होगी।”

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‘मुआवाजा समस्या का हल नहीं है'

पिछले साल, जलवायु परिवर्तन सम्मेलन COP27 एक नया कोष बनाने के लिए हुए एक ऐतिहासिक समझौते के साथ समाप्त हुआ, जिसके तहत उच्च कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों को पाकिस्तान जैसे कमजोर और प्रभावित देशों को मुआवजा देना होगा।

हालांकि, जलवायु कार्यकर्ताओं का कहना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस यानी 34.7 डिग्री फारेनहाइट की वैश्विक ताप सीमा को पार करने से रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि तापमान हो रही वृद्धि संवेदनशील क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन को और ज्यादा बढ़ा देगा।

बाबा जान जोर देकर कहते हैं, "क्षतिपूर्ति समाधान नहीं है, वह सिर्फ एक मरहम भर है। इससे होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए आर्थिक मदद करने की बजाय आपदा की ओर धकेलने वाले कार्बन के उत्सर्जन को कम करना ही बेहतर होगा। वैसे भी ऐसे नुकसान की पूरी तरह से गणना करना असंभव है। हमें पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट करने की बजाय कोशिश यह करनी चाहिए कि परिवर्तन के लिए कोई ऐसा तंत्र विकसित करें जिससे पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे।”

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पर्यावरण कार्यकर्ता स्थानीय स्तर की बजाय वैश्विक स्तर पर वितरित किए जा रहे मुआवजे से भी चिंतित हैं। जबकि पाकिस्तान सरकार के प्रतिनिधि ‘नुकसान और क्षति' फंड के लिए प्रमुख वार्ताकारों में से एक थे। सामुदायिक क्षतिपूर्ति की मांग करने वाले जान जैसे कार्यकर्ताओं को भी स्थानीय सरकार ने वैश्विक स्तर पर मुआवजे की बात करने के लिए जबरन दबाव डाला गया।

राठौर कहते हैं, "जब घरेलू स्तर की बजाय मुआवजे की मांग वैश्विक स्तर पर की जाती है तब जलवायु सक्रियता को बहुत अलग तरीके से लिया जाता है। सरकार कम उत्सर्जक देश के रूप में पाकिस्तान के लिए क्षतिपूर्ति का समर्थन करती है, लेकिन अगर हम स्थानीय विकास परियोजनाओं की आलोचना करते हैं जो लाभदायक हैं लेकिन पारिस्थितिकी के लिए खराब हैं, तो हमारी आवाज दबा दी जाती है।”

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