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राजधानी दिल्ली की 90वीं सालगिरह: ढिल्ली किल्ली दिल्ली की, पर फिर फिर बनती राजधानी

25 अगस्त को गोरों की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला से लंदन खतो-किताबत हुई और आनन-फानन में नई दिल्ली की नींव पुरानी राजधानी शाहजहांनाबाद से 3 कि मी दूर डाल दी गई। कोरोनेशन पार्क किंग्सवे कैंप में, जो तब वाइसरॉय का निवास था, इसका शिलान्यास हुआ था।

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दिल्ली नौ बार बसी और उजड़ी। कहा जाता है कि इसकी शुरुआत ही एक ढिल्ली किल्ली से हुई जब तोमर राजा अनंगपाल ने शहर को शेषनाग के फन पर टिकाये रखने वाली किल्ली को अपनी ज़िद से उखड़वाया और उस पर शेषनाग का खून लगा देख कर उसको फिर से रोपने की नाकाम कोशिश की। पुराने लोग तभी से कहने लगे, ‘दिल्ली की किल्ली ढिल्ली, तंवर भये मतिहीन...।' बहरहाल अंतिम बार यह तब उजड़ी जब ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरों ने जलमार्ग से जुड़ी और उद्योगपतियों की नगरी बन गई कलकत्ते की महानगरी को राजधानी बनाया। पर 1858 में कंपनी से अपने हाथ में ले कर राजकाज चलाने वाली जार्ज पंचम की सरकार ने 1905 में बंग भंग की नाकाम कोशिश से बंगाल में भारी अपयश कमा लिया। जनविद्रोह का स्वरूप भांप कर दिसंबर 1911 में लंदन से भारत के शाही दौरे पर आये सम्राट् जॉर्ज पंचम ने घोषणा की कि देश की राजधानी कोलकाता को नहीं फिर से दिल्ली को बनाया जायेगा।

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बादशाह जो कहें वही सही। लिहाज़ा 25 अगस्त को गोरों की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला से लंदन खतो-किताबत हुई और आनन-फानन में नई दिल्ली की नींव पुरानी राजधानी शाहजहांनाबाद से 3 कि मी दूर डाल दी गई। कोरोनेशन पार्क किंग्सवे कैंप में, जो तब वाइसरॉय का निवास था, इसका शिलान्यास हुआ था। पर यह होते ही दिल्ली की ढिल्ली किल्ली का प्रताप था या जाने क्या, विश्वयुद्ध छिड़ गया और काम ढीला हो गया।

बहरहाल वास्तुकार सर एडविन लुटियन और सर हरबर्ट बेकर की रची नई राजधानी का आज से ठीक 90 बरस पहले, 13 फरवरी 1931 को लॉर्ड हार्डिंज ने बाकायदा उद्घाटन किया। पहली सरकारी अफसर छावनी बनी सिविल लाइन इलाके में। नेटिव लोग शाहजहांनाबाद और आसपास के इलाकों में ही रहते आये। नई राजधानी चलाने के लिये भारतीय बाबू मद्रास प्रेसीडेंसी तथा कोलकाता प्रेसीडेंसी से ही लाये गये। उनको नई दिल्ली में आवास दिये गये और उन पढ़े लिखे कर्मठ बाहरिया लोगों की दिल्ली बन चली, जिसे आज कई दक्षिणपंथी दल उपहास से लुटियन्स गैंग कहते हैं। बावजूद इसके कि सत्तारूढ़ दल के हर महत्वाकांक्षी सदस्य का सपना यहां रहने का है। और अधिकतर तब की बनी भव्य कोठियों में सत्तारूढ़ दल के ही बड़े मंत्री और महत्वपूर्ण बाबुओं का बासा है।

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नई दिल्ली को बनाने का ठेका तब के जाने-माने ठेकेदार (स्व. खुशवंत सिंह के पिता) सरदार सोभा सिंह को दिया गया। इमारतें बनने में देर होती देख कर सरकारी कामकाज निबटाने के लिये 1912 में यहां उत्तरी दिल्ली में एक अल्पकालिक सचिवालय बनाया गया जो अब पुराना सचिवालय कहा जाता है। जब पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ तो काम ने रफ्तार पकड़ी और 13 फरवरी को नई दिल्ली का पहला जन्मदिन हुआ।

खर्चे की बाबत बताया जाता है कि सिर्फ कलकत्ते से दिल्ली राजधानी का अफसरी तामझाम लाने की कीमत ही चालीस लाख पाउंड पड़ी थी। राजधानियों का निर्माण हो कि ट्रांसफर, पैसा हमेशा हमारी जनता की ही जेब का रहा आया। बहरहाल घाघ राजनीतिज्ञ लॉर्ड हार्डिंज उद्घाटन भाषण में हिंदू मुसलमान भेदभाव को रेखांकित करना न भूले | उन्होंने नई राजधानी को हिंदुओं के लिये पांडवों की नगरी और मुसलमानों के लिये मुगलों की पुरानी राजधानी बताया और जोड़ा कि दरअसल यह नगर इतना विशिष्ट है कि इस सारे दौरान जनता तो कलकत्ते की बजाय दिल्ली को ही राजधानी समझती रही। और, इसलिए अंग्रेज़ सरकार बहादुर को पक्का यकीन था कि उनके इस फैसले से सभी हिंदू-मुसलमानों में खुशी की लहर दौड़ जायेगी।

दिल्ली की राजनीतिक स्थिति और किसी हद तक इसका समाज भले बदलता रहा हो, मगर दिल्लीवाले हर इंकलाब को सह गये। दिल्ली तो आज भी वह सरज़मीन है जिसकी खाक तले हज़ारों महान हस्तियाँ सो रही हैं। उन सबको हमारा विनम्र अभिवादन।

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