भागती जिंदगी में कभी ये सवाल जेहन में कौंधा ही नहीं। मेरे लिए तो गांव और दूर दराज के इलाकों का मतलब शारीरिक संघर्ष था। सुबह जल्दी उठना, इधर उधर कहीं जाना हो तो पैदल या साइकिल पर जाना, खुद पानी भरना, दूर जाकर सामान खरीदने से पहले यह हिसाब भी लगाना कि कंधे पर कितना बोझ संभाला जाएगा, कितने झोलों की जरूरत पड़ेगी। आटे के लिए गेंहू पहले धोकर सुखाना, फिर उन्हें पिसवाने के लिए चक्की का चक्कर। गैस सिलेंडर बदलने के लिए भी ऐसी ही दौड़। ये गांवों की जिंदगी में आम है।
Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
गांव में रहते हुए मैं अखबारों की कतरनों और टीवी पर आरामदायक शहर देखा करता था। मेरे आस पास का समाज भी मुझसे यही कहता कि किताबी मेहनत करो और अच्छी नौकरी पाकर इस दुनिया से निकलो। गांव वालों के लिए शहर, मुश्किल जिंदगी से निजात दिलाने वाला बसेरा होते हैं। शहर, जहां बिजली की कटौती कम होती हो, जहां बीमार होने पर फौरन अच्छे अस्पताल पहुंचा जा सके। बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजा जा सके। वहां शाम ढलते ही घर लौटने के लिए गाड़ी नहीं खोजनी पड़ती है। दुकानें देर शाम तक खुली रहती हैं और वहां तमाम तरह की चीजें मिलती हैं। भूख लगने पर रेस्तरां में घुसा जा सकता है. कभी कभार फोन कर घर पर खाना पर मंगवाया जा सकता है।
Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
फसल, मौसम, मवेशियों या लेनदारी के झमेले से दूर, शहर में नौकरी करने पर तनख्वाह भी समय से मिल जाती है। गांवों में आम तौर पर तकरीबन सब लोग एक दूसरे को जानते हैं, सवाल और शिकायतों के साथ एक दूसरे का हाल चाल लेते हैं। ऐसे गांवों से दूर शहर में लोगों की रेलमपेले में खुद को खोने का अहसास भी कई बार सकून देता है। अपार्टमेंट में हल्की फुल्की बातचीत के साथ बाकी पड़ोसियों के साथ कई साल तक अंजान बनकर रहा जा सकता है।
Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
जनवरी, फरवरी तक जिंदगी यूं ही चलती रही। शुरू में लगा कि कोरोना सिर्फ चीन की बात है। लेकिन फिर धीरे धीरे महामारी करीब आती गई और उसके साथ ही मौतों की बढ़ती संख्या और लाचारगी का अहसास।
जीवन में पहली बार मैंने एक अभूतपूर्व संकट को पसरते हुए देखा। बेतरतीब जीवनशैली से भरे शहर अचानक डराने लगे। किसी भी चीज को छूने में मैं असहज होने लगा। लगने लगा कि इस भीड़ में न जाने कौन कोरोना से पीड़ित हो। आम जिंदगी करीब दो महीने ठप हो गई। लेकिन लॉकडाउन ने मुझे अहसास करा दिया कि हमारा पूरा सिस्टम और हमारे शहर एक मृगमरीचिका जैसे हैं, 2020 में ये अर्थहीन से लगने लगे।
Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
एक तरफ जर्मनी में मेरे इर्द गिर्द ये सब हो रहा था। वहीं दूसरी तरफ भारत में मैंने प्रवासी कामगारों को गिरते पड़ते गांव लौटते हुए देखा। कई दृश्य बेहद मार्मिक थे। फफकते लोगों के साथ मैं भी महसूस करने लगा कि मुसीबत में आखिरकार गांव की छांव याद आती है। गांव की मिट्टी एक गजब की मानसिक सुरक्षा देती है। हमेशा लगता है कि जीवन में बड़ी विपत्ति भी आ जाए तो जमीन पर गुजारे के लायक कुछ उगा लेंगे।
Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
इस कदर सहारा देने वाले गांवों की हम सब शहरियों ने क्या हालत की है, ये किसी से छुपा नहीं हैं। हमारी नजर में ग्रामीण पिछड़े लोग हैं, जिन्हें न तो कपड़े पहने का सहूर है और ना ही बातचीत करने का। किसान या किसान से मजदूर बने शख्स के पसीने की गंध, हम शहरियों को दुर्गंध लगती है। हम नाक मुंह सिकोड़ने लगते हैं।
लेकिन इसके बावजूद इन दिनों अंग्रेजी में ठांय ठांय करते हुए हमें ऑर्गेनिक खाने की तलाश है। हम चाहते हैं कि गांवों से बिना रसायनों वाली साग सब्जी हम तक पहुंचे। हम चाहते हैं कि हमारे एशो आराम में खलल न पड़े। लेकिन अगर गांव इसी तरह खाली रहे तो हमारे मायावी शहरों का क्या होगा?
Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
कोरोना महामारी ने दिखा दिया है कि आज एक ठीक ठाक इंटरनेट कनेक्शन के साथ दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठकर कई काम किए जा सकते हैं और किए भी जा रहे हैं। स्कूल बंद हैं और ऑनलाइन क्लासेज हो रही हैं। यानि करोना ने मौजूदा एजुकेशन सिस्टम का फ्यूचर भी दिखाया है। रही बात रोजगार की तो इंटरनेट इसे भी बदल रहा है। अब कई लोगों के सामने दो विकल्प हैं, दूषित हवा और बीमारू जीवनशैली वाले शहर की नौकरी या इंटरनेट के सहारे किसी सकून भरे कोने में रहते हुए जिंदगी का जायका।
आजादी के बाद से लेकर अब तक हमने गांवों को नकारा है। उन्हें बेहतर बनाने के बजाए हमने वहां से पलायन किया है। लेकिन कोरोना महामारी ने दिखा दिया है कि गांव का आंचल कितना विशाल है। हमें गांवों और शहरों को अजनबी नहीं, बल्कि दोस्त बनाना होगा। ऐसे दोस्त जो पृष्ठभूमि, संप्रदाय और भाषाई अंतर को दरकिनार कर एक दूसरे को सहारा दे सकें।
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Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST
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Published: 25 Jul 2020, 9:55 AM IST