विचार

सांप्रदायिक सद्भावना हमारे देश की पहचान, मौजूदा समय में इसे बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयास की जरूरत

जब भी सांप्रदायिक हिंसा भड़कती है, तो इससे न केवल अनेक परिवारों की क्षति होती है बल्कि पूरे समाज और देश की क्षति होती है, इंसानियत की मूल भावना भी इससे बहुत आहत होती है। इसके बावजूद रह-रह कर सांप्रदायिक हिंसा क्यों होती है?

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया प्रतीकात्मक तस्वीर

जब भी सांप्रदायिक हिंसा भड़कती है, तो इससे न केवल अनेक परिवारों की क्षति होती है बल्कि पूरे समाज और देश की क्षति होती है, इंसानियत की मूल भावना भी इससे बहुत आहत होती है। इसके बावजूद रह-रह कर सांप्रदायिक हिंसा क्यों होती है?

इसके लिए कभी किसी को दोष दिया जाता है, कभी किसी को, पर एक सच्चाई इस सबसे ऊपर है कि जनसाधारण मूल रूप से अमन-शांति चाहते हैं। विशेष परिस्थितियों में उनमें से कुछ लोग तरह-तरह के दुष्प्रचार, आवेश या असुरक्षा का शिकार बनकर सांप्रदायिक हिंसा में हिस्सा ले सकते हैं या इसका समर्थन कर सकते हैं, पर बाद में इसके लिए बुरा महसूस करते हैं और इस समझ पर लौटते हैं कि उनके लिए, समाज के लिए, देश और दुनिया के लिए अमन-शांति बने रहना ही सबसे सही स्थिति है।

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विशेष स्थितियों में अमन-शांति की राह से कुछ लोगों के भटकने की वजह यह है कि चाहे वे मूलतः अमन-शांति चाहते हैं, पर साथ में उनमें अनेक शक, संदेह, बहस, मिथक, भ्रन्तियां अन्य संप्रदायों और धर्मों के प्रति हैं। इस वजह से अनेक असुरक्षाएं भी प्रायः नाहक ही जन्म लेती हैं। इन संदेहों और वहमों के बावजूद, चूंकि लोग मूलतः अमन-शान्ति वास्तव में चाहते हैं, अतः वे सुलह-समझौते का मन बनाए रखते हैं और संदेह-संशय की भावना को दबाए रखते हैं।

पर विशेष परिस्थितियों में ऐसी ताकतें सक्रिय होती हैं जो सांप्रदायिक हिंसा वैमनस्य को तेजी से फैलाने में अपना आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक लाभ देखती हैं। उनके द्वारा फैलाई गई हिंसा कभी ऐसा रूप लेती है कि कुछ विशेष धार्मिक पहचान के उद्यमियों या व्यापारियों की क्षति की जाए। कभी यह हिंसा इस राजनीतिक कारण से की जाती है कि मतदाताओं का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो जाए। कभी यह हिंसा इस आधार पर की जाती है कि कुछ विफलताओं की ओर से जनसाधारण का ध्यान हटाया जा सके। कभी एक या एक से अधिक समुदायों के विरुद्ध माहौल बनाने के लिए यह हिंसा की जाती है।

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चाहे मुख्य सांप्रदायिक प्रचार इनमें से किसी भी तरह का हो, पर बड़ी बात यह है कि विशेष परिस्थितियों में इसे बढ़ाया जाता है और यह प्रचार जोर भी पकड़ लेता है। कुछ समय से इसके लक्षण नजर आने लगते हैं और फिर यह हिंसा भड़क उठती है।

बहुत से समझदार व्यक्ति, विशेषकर अनुभव प्राप्त अधिकारी दुख से यह पूछते हैं कि जब लक्षण नजर आने लगे थे तभी सरकार, प्रशासन और पुलिस ने उचित कार्यवाही क्यों नहीं की। उनका यह कहना प्रायः उचित है कि उचित समय पर कार्यवाही होती तो सांप्रदायिक हिंसा को रोका जा सकता था। कुछ अनुभवी प्रशासनिक अधिरकारियों ने तो यहां तक कहा है कि यदि सरकार सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हो तो इक्का-दुक्का, एक-दो दिन की वारदात के आगे सांप्रदायिक हिंसा फैल ही नहीं सकती है।

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सद्भावना के समर्थक अनुभवी अधिकारियों के विचार अपनी जगह सही हैं, पर इससे भी गहरी सच्चाई यह है कि जब तक समाज में विभिन्न संप्रदायों और मजहबों में आपसी संदेह, शक, मिथक, भ्रान्तियां वहम बने रहेंगे तब तक यह संभावना बनी रहेगी कि कभी भी इन्हें भड़का कर सांप्रदायिक हिंसा का रूप दे दिया जाए। अतः एक जरूरत यह है कि इन भ्रान्तियों, वहमों और मिथकों को दूर कर आपसी सद्भावना बढ़ाने के कार्य को निरंतरता से किया जाए।

यदि किन्हीं दो संप्रदायों या मजहबों के लोगों के रीति-रिवाज और रहन-सहन में कुछ फर्क है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि इस कारण परस्पर भाईचारे से रहने में कोई कठिनाई है। किसी देश में कितने भी धर्म हों, उन सभी के अनुयायी पूरी तरह समानता के आधार पर आपस में मित्रता और बंधुत्व से अवश्य रह सकते हैं। यह हमारे देश की संविधान सम्मत बुनियाद है और इस बुनियाद की रक्षा हम सभी को आपसी एकता बढ़ाते हुए निरंतरता से करनी चाहिए।

यदि आजादी के बाद 73 वर्षों को समग्र रूप में देखें तो कुल मिलाकर दुनिया के विभिन्न देेशों में हमारी पहचान अपेक्षाकृत अधिक सांप्रदायिक सद्भावना वाले देशों में ही की जाएगी। यदि कोई ऐसा दौर आता है जब यह पहचान खतरे में पड़ती है तो हमें एकता और सद्भावना के लिए विशेष प्रयास करने चाहिए। आज हम ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं।

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इसके साथ यह भी जरूरी है कि स्थिति सामान्य हो जाए तो भी हम सद्भावना के प्रयासों को जारी रखें। हमारे समाज से एक बड़ी चूक यही हुई है कि सांप्रदायिक हिंसा भड़कने पर ही सद्भावना समिति बनाते हैं। सामान्य समय में भी गांवों, मोहल्लों में सद्भावना समितियों को सक्रिय रहना चाहिए। तभी जो आपसी शक हैं, भ्रान्तियां हैं, लंबे समय से चले आ रहे मिथक हैं वे दूर हो सकते हैं और विभिन्न समुदायों में एक-दूसरे के प्रति जो असुरक्षा की भावना है उसे दूर किया जा सकता है। एक विशेष प्रयास यह जरूरी है कि पुलिस को सांप्रदायिक भेदभाव से मुक्त करने के प्रयास निरंतरता से किए जाएं।

इससे एक कदम आगे बढ़कर इस सोच को और मजबूत किया जा सकता है कि यदि सभी धर्मों की एकता बहुत मजबूत हो जाए तो इससे जो साझी संस्कृति विकसित होती है वह बहुत समृद्ध है। भाषा, साहित्य, कला, दस्तकारी सभी क्षेत्रों में समृद्धि आएगी, बहुत प्रगति होगी। गांव और गली-मोहल्ले का दैनिक जीवन अधिक समृद्ध होगा। निश्चित अमन-शांति के माहौल में आर्थिक प्रगति के अवसर मोहल्ले और देश तक सभी स्तरों पर बढ़ेंगे। इतना ही नहीं, भारत में मजहबी-एकता मजबूत होगी तो पूरे दक्षिण एशिया में अमन-शांति का माहौल बढ़ाने में इसका सार्थक और महत्त्वपूर्ण असर नजर आएगा।

इस देश में लोगों का सबसे अधिक स्थाई सम्मान गौतम बुद्ध, महावीर जैन, गुरु नानक और संत कबीर को मिला जो सद्भावना के प्रतीक भी हैं। आधुनिक समय को लें तो सबसे अधिक प्यार महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, जवाहरलाल नेहरु, शहीद भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना आजाद और बादशाह खान को मिला जो सभी मजहबी एकता के प्रतीक हैं। बादशाह खान तो पाकिस्तान में रहते हुए भी हमारे लिए फ्रंटियर गांधी ही बने रहे। इन सभी धर्मों की महिलाओं ने देश के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया। अतः इन सभी से प्रेरणा प्राप्त करते हुए हमें मजहबी एकता के लिए निरंतरता से प्रयास करने चाहिए।

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