विचार

दो-दो सर्जिकल स्ट्राइक से नहीं माना पाकिस्तान, फिर भी जंग तो नहीं है समस्या का इलाज

युद्ध छिड़ने की स्थिति में यह कैसे पता चलेगा कि उसकी तीव्रता परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल की हद तक पहुंच गई है? कुल मिलाकर युद्ध तो अनिश्चितताओं से भरा खेल है। मोदी सरकार ने पाकिस्तान से बातचीत न करने का कठोर निर्णय लेकर स्थिति को और बिगड़ने का मौका दिया है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

लखनऊ के हजरतगंज चौराहे पर लगी डॉ आंबेडकर की मूर्ति पर दलित छात्रों द्वारा आयोजित पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों की श्रद्धांजलि सभा में भाग लेने का मौका मिला। इन छात्रों का कार्यक्रम घटना में गंभीर क्षति को देखते हुए सौम्य था और छात्रों ने कोई नारे न लगाने का निर्णय लिया था। वहीं बगल में लगी महात्मा गांधी की मूर्ति पर तमाम किस्म के राष्ट्रवादी संगठन, जिनमें शामिल होने वालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी, इसी मकसद से इकट्ठा हुए थे। पाकिस्तान के खिलाफ इनकी नारेबाजी आवेशपूर्ण और आक्रामक थी, जिसे देखकर शायद खुद गांधी जी भी असहज महसूस करते।

ऐसे में सवाल यह है कि ऐसे आतंकवादी हमले अभी भी क्यों जारी हैं, जबकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बता चुके हैं कि 2016 में उरी आतंकी हमले का सबक सिखाने वाला जवाब पाकिस्तान को निर्णायक सर्जिकल स्ट्राइक में दिया जा चुका है। हिंदुत्ववादियों का शोर है कि मोदी सरकार पाकिस्तान पर और करारा सर्जिकल स्ट्राइक करे, लेकिन जब पाकिस्तान को एक सर्जिकल स्ट्राइक से हम हतोत्साहित नहीं कर पा रहे हैं, तो क्या जरूरी है कि दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक कामयाब रहेगी?

और हमें यह कैसे पता लगेगा कि सर्जिकल स्ट्राइक कितनी करारी है कि युद्ध ही छिड़ जाए? युद्ध छिड़ने की स्थिति में यह कैसे पता चलेगा कि उसकी तीव्रता परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल की हद तक पहुंच गई है? कुल मिलाकर युद्ध तो अनिश्चितताओं से भरा खेल है। मोदी सरकार ने पाकिस्तान के साथ बातचीत न करने का कठोर निर्णय लेकर स्थिति को और बिगड़ने का मौका दिया है।

उधर, अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना को निकालने का निर्णय लिया है, जिससे भारत के लिए संकट खड़ा हो गया है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जो अभी तक आतंकवादी संगठनों को संरक्षण देने के लिए पाकिस्तान सरकार की आलोचना कर रहे थे, को अब समझ आ गया है कि तालिबान से अमेरिका की वार्ता कराने में पाकिस्तान की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। अब वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहकर मजाक उड़ाते हैं कि मोदी ने काबुल में एक पुस्तकालय, जो असल में भारत की पूर्व सरकार से मिला अफगानिस्तान का संसद भवन है, बनवाया है।

प्रधानमंत्री मोदी ने एक भी ऐसा अंतरराष्ट्रीय मौका नहीं छोड़ा होगा जहां उन्होंने पाकिस्तान को आतंकवाद को संरक्षण देने के लिए अलग-थलग करवाने की कोशिश न की हो, लेकिन वह किसी भी एक महत्वपूर्ण देश को अपनी बात मनवा नहीं पाए। जैश-ए-मोहम्मद का मसूद अजहर, जिसका 2001 के संसद भवन पर हमले से लेकर हाल के पुलवामा हमले तक में हाथ है, को संयुक्त राष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाने के प्रयास में चीन ने हमेशा अड़ंगा लगाया है। रूस जो अभी तक भारत का अभिन्न मित्र माना जाता था, भारत के अमरीका के करीब जाने की कोशिशों को देखते हुए अब पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास करने लगा है।

मोदी सरकार को यह समझना पड़ेगा कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर बार-बार भारत को पीड़ित दिखाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिश कामयाब नहीं हो रही है, बल्कि भारत ही अकेला पड़ता जा रहा है। भारत पाकिस्तान के साथ खुलकर युद्ध भी नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसे किसी भी युद्ध में परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल का खतरा रहेगा। इसलिए अब भारत के हित में यही है कि वह पाकिस्तान से मित्रता कर और कश्मीर में हालात को सामान्य बनाकर इस इलाके में शांति स्थापित करे। अपने आपको और अपनी ही विचारधारा को सही मानना और दूसरे लोगों को गलत मानने की सोच ने ही कश्मीर में जन-जीवन को तबाह कर दिया है।

जब केंद्र की मोदी सरकार तालिबान के साथ बातचीत करने को राजी है, तो उसे पाकिस्तान सरकार और कश्मीर की राजनीति में दखल रखने वाले समूहों से बातचीत न करने की भूमिका पर पुनर्विचार करना चाहिए। इमरान खान ने करतारपुर गलियारा खोलने की पहल कर मोदी सरकार को इस परियोजना पर पाकिस्तान के साथ सहयोग करने पर मजबूर कर दिया है, क्योंकि भारत सरकार सिख धर्म के अनुयायियों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकती।

भारत को उच्चतम स्तर पर बातचीत की प्रकिया को बहाल करना चाहिए। यह बड़े दुख की बात है कि नवजोत सिंह सिद्धू, जो भारत का एकमात्र ऐसा राजनीतिज्ञ है जो पाकिस्तान से शांति वार्ता की वकालत कर राष्ट्रवाद की राजनीति के विषाक्त माहौल में कुछ समझदारी की बात कर रहा है, की आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है। जबकि भारत सरकार को तो पाकिस्तान के साथ वार्ता के लिए नवजोत सिंह सिद्धू से इमरान खान की निजी मित्रता का लाभ उठाना चाहिए।

जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल करने के लिए राज्य के विधानसभा चुनाव हो सके तो लोकसभा के चुनाव के साथ ही करा देने चाहिए और वहां एक चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण काम जो उसे करना चाहिए वह है, सेना को कश्मीर के अंदरूनी इलाकों से हटाने का। चुनी हुई सरकार पर भरोसा कर जम्मू-कश्मीर की सरकार को दूसरे राज्यों की तरह वहां की पुलिस की मदद से कानून-व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी सौंप देनी चाहिए। सेना की भूमिका सिर्फ सीमा की सुरक्षा तक होनी चाहिए। ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम’ को धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर से हटा लिया जाना चाहिए, जिसकी मांग उमर अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री रहते हुए भी उठाई थी।

कश्मीर में स्थिति को सामान्य करने के लिए भारत को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी और हालात सामान्य करने के लिए अपने संविधान पर भरोसा करना होगा। नरेंद्र मोदी को दिल बड़ा कर, कश्मीर के लोगों के साथ, वहां के राजनीतिक समूहों के साथ, जिसमें अलगाववादी भी शामिल हैं और पाकिस्तान सरकार की तरफ मैत्री का हाथ बढ़ाना पड़ेगा। जहां तक आतंकवाद का सवाल है दोनों देशों की सरकारों को मिलकर ही उससे निपटना पड़ेगा। मोदी सरकार को समझना होगा कि आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए भारत को पाकिस्तान के साथ बैठकर बात करनी ही होगी।

(डॉ. संदीप पाण्डेय विकास और शिक्षा के मुद्दों पर लिखते हैं और मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित हैं।)

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