विचार

खरी-खरी: इस साल के बजट के बाद भारत अब न वेलफेयर स्टेट रहा, न ही आंबेडकर के सामाजिक न्याय का पक्षधर

सरकार ने इस बजट से देश की सामाजिक नीति की दिशा ही बदल दी है। हर क्षेत्र पूंजीपति प्रधान होगा, अर्थात हर आर्थिक गतिविधि निजी क्षेत्र के हाथ में होगी, तो फिर धीरे-धीरे आरक्षण की भी हत्या हो जाएगी। क्योंकि निजी क्षेत्र में किसी भी रूप में आरक्षण लागू नहीं होगा।

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केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्तीय वर्ष 2021- 22 के बजट की तैयारी के समय यह कहा था कि आने वाला बजट पिछले सौ वर्षों के बजट से अलग होगा। लेकिन जब पहली फरवरी को उन्होंने लोकसभा में अपना बजट पेश किया तो यह पता चला कि उनका यह बजट तो वास्तव में कई सौ वर्षों में एक है। क्योंकि भारतीय वित्तीय व्यवस्था निश्चय ही इतनी खुलकर पूंजीवादी और रूढ़ीवादी नहीं रही होगी जैसी कि निर्मला सीतारमण के बजट के बाद होने जा रही है। एक वाक्य में यदि कहा जाए तो मोदी सरकार का वित्तीय वर्ष 2021-22 का बजट पूरी तरह से रूढ़ीवादी बजट है। मैं स्वयं कोई अर्थशास्त्री नहीं और न ही बजट के मामलात को पूरी तरह से समझने योग्य हूं। परंतु हर बजट की अपनी एक राजनीतिक और सामाजिक रूपरेखा होती है, इसलिए वह इस बजट की भी है। और इस बजट की जो राजनीतिक और सामाजिक रूपरेखा है, वह भारतीय अर्थव्यवस्था की परंपराओं के अनुकूल नहीं बल्कि प्रतिकूल है। वह कैसे और क्यों!

स्वतंत्रता के बाद देश में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जो आर्थिक ढांचा बना, वह मूलरूप से समाजवाद और सामाजिक न्याय के मूल्यों पर आधारित था। भारत में मिक्स्ड इकॉनोमी (मिश्रित अर्थव्यवस्था) अर्थात पूंजीवादी व्यवस्था और अर्थव्यवस्था में सरकारी भागीदारी का चलन अपनाया गया। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि पब्लिक सेक्टर को प्राथमिकता रहेगी। कारण यह था कि सरकार एक कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) के रूप में काम करना चाहती थी। इसका मकसद यह था कि सरकार केवल पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों के हित में नहीं बल्कि आम जनता के हित में सक्रिय रूप से काम करना चाहती थी। यही कारण है कि सरकार ने बड़े-बड़े सरकारी कारखाने बनाए, बैंक खोले, देश की आर्थिक उन्नति के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी)-जैसी कंपनियों का निर्माण किया और साथ ही देश में इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए लाखों करोड़ रुपये रेलवे, एयरपोर्ट, पोर्ट एवं सड़कों-जैसे जनसंसाधनों में खर्च किए।

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1990 के दशक के आरंभ तक लगभग यही आर्थिक मॉडल चलता रहा। परंतु सन 1991 में देश में आर्थिक इमरजेंसी उत्पन्न हुई। उस समय सरकार को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से लंबा-चौड़ा कर्ज लेना पड़ा। जाहिर है, कर्ज देने वाले यूं ही तो कर्ज देते नहीं। आईएमएफ ने सरकार को देश में ‘मार्केट इकॉनोमी’, अर्थात बाजार, यानी संपूर्णतया पूंजीवादी व्यवस्था लागू करने का दबाव डाला। भारत ने उनकी कुछ मांगें मान लीं जिसके फलस्वरूप उस समय के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जो बजट पेश किया, उसकी सारे संसार में चर्चा रही। परंतु फिर भी कांग्रेस एवं दूसरी सरकारों ने भारत की कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) की रूपरेखा खत्म नहीं की। इसी कारण कृषि क्षेत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और आम जनता के हित में मनरेगा- जैसी स्कीमें चलती रहीं। उधर, सरकार ने घाटे में चलने वाले ‘पब्लिक सेक्टर’ बेचे लेकिन बैंक, इंश्योरेंस एवं रेलवे, पोर्ट और एयरपोर्ट-जैसे अनिवार्य जनसंसाधनों पर सरकारी नियंत्रण रखा। इसी आर्थिक मॉडल के तहत भारत की विकास दर (ग्रोथ रेट) मनमोहन सरकार के समय आठ प्रतिशत तक पहुंची और भारत आर्थिक उन्नति के अपने शिखर को पहुंचकर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।

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केवल इतना ही नहीं, भारतवर्ष ने स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही केवल आर्थिक उन्नति की ओर ही नहीं बल्कि देश की सामाजिक विषमताओं पर भी ध्यान दिया। तब ही तो स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही दलितों को संसद से लेकर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया गया। फिर, 1990 के दशक में मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू कर उस समय की वीपी सिंह सरकार ने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में दिया। इन दोनों आरक्षणों के पीछे देश के दबे-कुचले सामाजिक वर्गों की आर्थिक और सामाजिक उन्नति का लक्ष्य था। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सदा से ही आरक्षण के पक्ष में नहीं रहे हैं। परंतु दलितों और पिछड़ों की भारी संख्या के कारण उन्होंने खुलकर आरक्षण विरोधी पक्ष नहीं लिया।

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भारतीय अर्थव्यवस्था दो सिद्धांतों- जनहित और सामाजिक न्याय के आधार पर चलती चली आ रही थी। परंतु निर्मला सीतारमण ने मोदी जी के नेतृत्व में अपने बजट में खुलकर देश की आर्थिक दिशा पूरी तरह से बदल दी है।

सबसे पहली बात जो इस बजट से उभरकर सामने आई है, वह यह है कि अब सरकार जनहित में नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में काम करेगी। अब आप देखिए, वित्तमंत्री ने ऐलान किया कि दो बैंक बेचे जाएंगे और बीमा क्षेत्र में एलआईसी-जैसी मुनाफा कमाने वाली कंपनी में प्राइवेट भागीदारी होगी। फिर सरकारी कंपनियों के पास जो ‘एसेट’ (परिसंपत्तियां) हैं, उनको भी बेचा जाएगा। अर्थात रेलवे एवं दूसरी सरकारी कंपनियों के पास जो लाखों एकड़ जमीन है, वह भी पूंजीपतियों को औने-पौने दामों में बेच दी जाएगी। यह सारी सरकारी संपत्ति अपने करीबी पूंजीपतियों के हवाले कर दी जाएगी।

यदि आप इस दृष्टिकोण से वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट को देखें तो स्पष्ट है कि मोदी सरकार अब जनहित में नहीं बल्कि धनहित अथवा पूंजीपतियों के हित में काम करेगी। भारतीय संपत्ति और संसाधनों पर अब पूंजीपतियों एवं धनपतियों का पहला अधिकार होगा। अब बैंक बिकेंगे, पोर्ट और एयरपोर्ट बिकेंगे, रेलवे स्टेशन तो पहले ही बिक रहे थे, अब संपूर्ण रेलवे ही पूंजीपतियों के हाथों में होगी। तब ही सीतारमण यह कह रही थीं कि उनका 2021-22 का बजट सौ वर्षों में अनोखा बजट होगा। निःसंदेह यह इस हद तक अनोखा बजट है कि इसमें हर वर्ष की तरह मध्यवर्ग को मिलने वाली थोड़ी- बहुत राहत भी नहीं है।

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यह बात अब स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने केवल आर्थिक दिशा ही नहीं बदली है बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था की राजनीतिक दशा एवं दिशा ही बदल दी है। अब सरकार जनहित छोड़कर केवल धनहित में ही काम करेगी। अर्थात भारतीय राज्य नेहरू द्वारा निर्मित वेलफेयर स्टेट मॉडल को छोड़कर पूरी तरह से अमेरिका के समान बाजार के हित में पूंजीवादी मॉडल होगा। तब ही तो सरकार ने अपनी इस नीति को हर क्षेत्र में पहले ही लागू करना आरंभ कर दिया है। नए किसानी कानूनों के तहत पहले ही किसान के लिए एमएसपी समाप्ति की घोषणा कर दी है। इसी प्रकार किसानी क्षेत्र में मंडियों के वर्चस्व को खत्म करने के लिए भी जो मंडी विरोधी कानून बना है, उससे अब खेती की उपज की खरीददारी एवं बेचने में भी पूंजीपति को प्राथमिकता होगी, अर्थात किसानी क्षेत्र से भी वेलफेयर स्टेट मॉडल की समाप्ति की घोषणा हो चुकी है।

केवल इतना ही नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था हर क्षेत्र में अब पूंजीपति प्रधान होगी बल्कि सरकार ने इस बजट के माध्यम से भारतीय सामाजिक नीति की दिशा ही पूरी तरह से बदल दी है। जब हर क्षेत्र पूंजीपति प्रधान होगा, अर्थात हर आर्थिक गतिविधि प्राइवेट सेक्टर के हाथों में होगी, तो फिर धीरे-धीरे दलितों एवं पिछड़ों के आरक्षण की भी हत्या हो जाएगी। क्योंकि प्राइवेट सेक्टर में किसी भी रूप में आरक्षण लागू नहीं होगा। आरएसएस और बीजेपी का यह पुराना सपना था कि किसी प्रकार आरक्षण से पिंड छूटे। पूंजी प्रधान अर्थव्यवस्था बनाकर और हर चीज प्राइवेट सेक्टर को देकर मोदी सरकार ने एक तीर से दो शिकार कर लिए। एक ओर नेहरू के आर्थिक वेलफेयर मॉडल को तोड़ दिया, दूसरी ओर आंबेडकर का सामाजिक न्याय का सपना भी तोड़ दिया। नरेंद्र मोदी जी जिस ‘न्यू इंडिया’ और ‘गुजरात मॉडल’ की बात करते हैं, वह पूंजी प्रधान पूंजीपतियों का भारत है जिसमें आम आदमी तो आम आदमी, मध्य वर्ग के लिए भी कोई जगह नहीं है।

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