भारतीय समाज में अनेक असमानताएं व्याप्त हैं। कुछ ऐसी ताकतें हैं जो भारतीय संविधान का ही अंत कर देना चाहती हैं। वह इसलिए क्योंकि संविधान समानता की स्थापना के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण औज़ार है।
भारत में पितृसत्तात्मक मूल्यों का बोलबाला रहा है। इन मूल्यों का धर्मग्रंथों में महिमामंडन किया गया है। वर्ण-जाति व्यवस्था को भी समाज ने मान्यता दी है। यह भी पवित्र ग्रंथों द्वारा अनुमोदित है। वर्ण-जाति से जुड़ी असमानताएं अनादि काल से हमारी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा रही हैं और आज भी हैं।
जातिगत असमानता के खिलाफ और समानता और सामाजिक न्याय के पक्ष में पहली महत्वपूर्ण आवाज़ गौतम बुद्ध की थी। समता का मूल्य उनकी शिक्षाओं के केंद्र में था। इसने सामाजिक व्यवस्था को कुछ हद तक प्रभावित किया था। मध्यकाल में, राजशाही के दौर में, भी असमानता बनी रही। कबीर, नामदेव, तुकाराम और नरसी मेहता जैसे संत-कवियों ने जातिगत असमानता की क्रूरता और उसकी अतार्किकता पर प्रकाश डाला। केरल में नारायण गुरु ने जाति प्रथा के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन शुरू किया।
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ब्रिटिश राज की स्थापना और आधुनिक शिक्षा की शुरुआत के साथ जोतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे लोगों ने दलितों और महिलाओं के लिए स्कूलों की स्थापना की और इस तरह जातिगत और लैंगिक असमानता के खिलाफ जंग छेड़ी। उनके बाद, बाबासाहेब अम्बेडकर ने चावदार तालाब और कालाराम मंदिर आंदोलनों के जरिए और मनुस्मृति की प्रतियां जलाकर सामाजिक समानता के संघर्ष को आगे बढ़ाया। अम्बेडकर ने स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर बहुजन हितकारिणी सभा और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन जैसी संस्थाओं की स्थापना की। पूना पैक्ट के बाद गाँधीजी ने सामाजिक समानता की स्थापना के लिए एक बड़ा आंदोलन शुरू करते हुए दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलवाने और उनके साथ भोजन ग्रहण करने के पक्ष में वातावरण बनाया। इस सिलसिले में पेरियार रामासामी का आत्मसम्मान आंदोलन भी कम महत्वपूर्ण नहीं था।
स्वाधीनता के बाद संविधान सभा का गठन हुआ। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने संविधान सभा की मसविदा समिति के अध्यक्ष पद हेतु अम्बेडकर का नाम प्रस्तावित किया। अम्बेडकर की अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता और अपने काम के प्रति समर्पण भाव के चलते संविधान में समानता, सामाजिक न्याय और कमज़ोर वर्गों के प्रति सकारात्मक भेदभाव सुनिश्चित करने वाले प्रावधान शामिल किए जा सके।
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संविधान के शुरुआती शब्द "हम भारत के लोग" ही यह स्पष्ट करते हैं कि वह समानता का पक्ष पोषण करने वाला दस्तावेज है और कमज़ोर वर्गों को हर प्रकार का संरक्षण दिए जाने का समर्थक है। संविधान सभा, स्वाधीनता आंदोलन के सामाजिक न्याय के मूल्य को प्रतिबिंबित करता है और उसमें हुई बहसें और वाद-विवाद, सामाजिक न्याय की पक्षधरता करते हैं। इसके चलते ही भारत की जनता के इस घोषणापत्र में आरक्षण, अछूत प्रथा का निषेध और सकारात्मक कार्यवाही सम्बन्धी प्रावधान जगह पा सके।
"स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व" के अतिरिक्त हमारे संविधान की उद्देशियका 'न्याय' की बात भी करती हैं। वह कहती है कि न्याय के तीन प्रमुख स्वरूप हैं: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक। इन्हें हासिल करने के लिए संविधान में मौलिक अधिकारों और राज्यों के नीति निदेशक तत्वों का समावेश किया गया है। सामाजिक न्याय से आशय यह है कि सभी नागरिकों के साथ एक समान व्यवहार किया जायेगा फिर चाहे उनके जाति, रंग, नस्ल, धर्म या लिंग कोई भी हो। इसका मतलब यह भी है कि समाज के किसी तबके को कोई विशेषाधिकार हासिल नहीं होंगे और महिलाओं और पिछड़े वर्गों (एससी, एसटी व ओबीसी) की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति को बेहतर बनाया जाएगा। आर्थिक न्याय से आशय यह है कि नागरिकों के साथ उनकी आर्थिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसका अर्थ यह भी है कि आमदनी, संपत्ति और धन-दौलत के संदर्भ में असमानताओं को मिटाया जाएगा। सामाजिक और आर्थिक न्याय का संयोजन वितरात्मक न्याय कहलाता है। राजनैतिक न्याय का अर्थ है कि सभी नागरिकों को समान राजनैतिक अधिकार हासिल होने चाहिए और सभी की आवाज़ को सरकार द्वारा सुना जाना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की अवधारणा को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है।
फिर अन्य प्रावधान भी हैं: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता के अधिकार से संबंधित हैं, जिसमें कानून के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14), धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15), सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर (अनुच्छेद 16), अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17), और उपाधियों का उन्मूलन (अनुच्छेद 18) शामिल हैं।
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इन सभी प्रावधानों का उद्देश्य उन बुराईयों को समाप्त करना है जो जाति व्यवस्था के कारण जन्मीं और बनी हुई हैं। ये प्रावधान सामाजिक न्याय पर आधारित समाज की स्थापना के लिए चलाये जा रहे सामाजिक आंदोलनों की मददगार हैं।
सामाजिक न्याय एक बहुत व्यापक अवधारणा है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गजेन्द्र गड़कर के अनुसार, "सामाजिक न्याय का उद्देश्य है धार्मिक और आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में हर नागरिक के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना और असमानताओं पर काबू पाना।"
इसके अलावा भी हमारे संविधान में ऐसे प्रावधान हैं जिनका उद्देश्य सामाजिक न्याय की अवधारणा को उसकी संपूर्णता में लागू करना है। इनमें शामिल हैं अनुच्छेद 15(4) जो राज्य को "सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े" नागरिकों के किसी भी वर्ग या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने की शक्ति देता है, अनुच्छेद 16(1) जो कहता है कि राज्य के अधीन किसी भी कार्यालय में रोजगार या नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर होंगे और अनुच्छेद 16(4) जिसके अनुसार अनुच्छेद 16(1) की कोई बात राज्य को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए कोई उपबंध करने से नहीं रोकेगी, जिसका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है. अनुच्छेद 46 के अनुसार, "राज्य जनता के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष ध्यान से बढ़ावा देगा तथा उन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से बचाएगा।"
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इस समय हम देख रहे हैं कि जो लोग सामाजिक न्याय की अवधारणा के खिलाफ हैं वे खुलकर भारत के संविधान में बदलाव की मांग कर रहे हैं। इनमें प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय समेत अनेक व्यक्ति शामिल हैं। देबरॉय के अनुसार, चूँकि अदालतों ने यह साफ कह दिया है कि कार्यपालिका, संविधान की मूल ढांचे में बदलाव नहीं कर सकती इसलिए हमें एक नए संविधान की जरुरत है। वे यह भी कहते हैं कि हमारा वर्तमान संविधान, औपनिवेशिक बपौती है और वे उसके समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, न्याय, समानता और स्वाधीनता सम्बन्धी प्रावधानों पर भी प्रश्न उठाते हैं।
हिन्दू दक्षिणपंथ के अनेक विचारकों का यह तर्क है कि भारत एक "सभ्यतागत राज्य" है (अर्थात वेदों और मनुस्मृति के मूल्यों का पोषक) और संविधान उसके ऊपर नहीं हो सकता है। अब 'सभ्यता' के क्या परिभाषा है? इन ज्ञानियों का कहना है कि (ब्राह्मणवादी) हिन्दू धर्म, भारत की सभ्यता का मूल है। वे वामपंथी इतिहासविदों पर यह आरोप लगाते हैं कि वे इस्लाम और विशेषकर मुसलमानों और मुगलों को महत्व देकर, भारत के इतिहास को तोड़मरोड़ रहे हैं। उन्हें इस बात का बहुत दुःख हैं कि चोल जैसे हिन्दू राजाओं को राष्ट्रीय विमर्श में अपेक्षित महत्व नहीं मिला है जबकि विदेशी मुगलों को हमारे इतिहास में गैर-अनुपातिक स्थान दिया गया है।
आज जरूरत इस बात की है कि भारत के संविधान की, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले उसके प्रावधानों सहित, रक्षा की जाए और उसे मजबूत बनाये जाए।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया।)
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