विचार

भारत जोड़ो यात्रा में एक तपस्वी के साथ कुछ कदम, देश के भविष्य को लेकर नई आशा का हुआ संचार

इस यात्रा ने विघटनकारी आख्यान के प्रभुत्व को चुनौती दी है। इस साहसिक पहल से साम्प्रदायिक आख्यान का मुकाबला करने में मदद मिल रही है और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जिन मूल्यों से हमारी राजनीति संचालित होती थी उनकी वापसी हो रही है।

फोटोः राम पुनियानी
फोटोः राम पुनियानी 

लगभग 3 माह पहले शुरू हुई भारत जोड़ो यात्रा अपने समापन के करीब है। यात्रा हरियाणा पहुंच गई है और अपनी अंतिम मंजिल श्रीनगर की ओर बढ़ रही है। मैं इस यात्रा पर शुरू से ही नजर रखे हुए हूं। इसकी शुरूआत स्वामी विवेकानंद को कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल पर श्रद्धांजलि अर्पित करने से हुई। वहां से यह 12 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों से गुजरती हुई हरियाणा पहुंची है।

यद्यपि मुख्यधारा के मीडिया ने इस यात्रा को नजरअंदाज किया परंतु यात्रा को शुरू से ही जनसमर्थन मिलने लगा था। अब तो इसका जबरदस्त प्रभाव सबके सामने है। कुछ लोगों ने कहा था कि यह यात्रा टांय-टांय फिस्स हो जाएगी परंतु इस पर जनप्रतिक्रिया ने इन दावों को गलत सिद्ध कर दिया। उसके बाद यह कहा गया कि उत्तर भारत और विशेषकर गाय पट्टी में यह यात्रा पिट जाएगी। परंतु यह भी नहीं हुआ बल्कि इसके उलट उत्तर भारत में यात्रा को जबरदस्त समर्थन मिला और उसमें भाग लेने के लिए लोग उमड़ पड़े।

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अगर मैं अपनी बात करूं तो इस यात्रा से मेरा जुड़ाव नागरिक समाज समूहों द्वारा नागपुर और वर्धा में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन के साथ शुरू हुआ। यह सम्मेलन इस पर विचार करने के लिए बुलाया गया था कि भारत जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र प्रवास के दौरान नागरिक समाज संगठन उसे कैसे मजबूती दें। मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि अधिकांश नागरिक समाज समूहों (सम्मेलन में लगभग 125 समूहों ने भागीदारी की थी) के कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर अलग-अलग मुद्दों को लेकर संघर्षरत थे।

हमने विघटनकारी राजनीति के कारण देश के समक्ष उपस्थित खतरों की बात की और इस बात पर भी विचार किया कि हमें शांति, न्याय और सद्भाव के मूल्यों, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम के पथ प्रदर्शक थे, की पुनर्स्थापना के लिए क्या करना होगा। पिछली सदी के अंतिम दशक के बाद से हमारे देश का वातावरण विघटनकारी और साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के साथ विषाक्त होता चला गया, विशेषकर एक अन्य यात्रा के नतीजे में। यह यात्रा बीजेपी के आडवाणी ने एक टोयोटा मिनी ट्रक में निकाली थी जिसे वे रथ बताते थे।

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जाने-माने डाक्यूमेन्ट्री निर्माता आनंद पटवर्धन, जिन्होंने उस यात्रा पर एक शानदार फिल्म 'राम के नाम' बनाई थी, ने आडवाणी और भारत जोड़ो यात्राओं की तुलना की। उन्होंने कहा कि आडवाणी की यात्रा जहां-जहां से गुजरी वह अपने पीछे खून की एक गहरी लकीर छोड़ती गई। इसके विपरीत भारत जोड़ो यात्रा जहां-जहां से गुजरी उसने वातावरण में शांति और सद्भाव का संचार किया। जहां रथयात्रा का लक्ष्य बाबरी मस्जिद को तोड़ना था, वहीं वर्तमान यात्रा का लक्ष्य लोगों को जोड़ना है। जहां आडवाणी की रथयात्रा संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ थी और उनका उल्लंघन करना चाहती थी वहीं भारत जोड़ो यात्रा संवैधानिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करना चाहती है।

इस सम्मेलन में दो दिनों तक शिरकत करने से मुझे यह एहसास हुआ कि नागरिक समाज समूह इस यात्रा को किस रूप में देखते हैं और उस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया है। ज्यादातर मित्रों की राय थी कि यह यात्रा वर्तमान समय की एक अहम् जरूरत को पूरा कर रही है और उससे लोगों को अनेक अपेक्षाएं हैं। फेसबुक और ट्विटर पर इस यात्रा के बारे में जो कुछ कहा गया उससे यह स्पष्ट है कि उसे जबरदस्त जनसमर्थन मिल रहा है। राहुल गांधी ने लोगों से जिस तरह बातचीत की, जिस तरह उनका अभिवादन किया उसने भी लोगों को आकर्षित किया। उनका व्यवहार एक ऐसे मित्र की तरह था जो आप से संवेदना के स्तर पर जुड़ा हुआ है और आपसे शायद थोड़ा ज्यादा जानता है। वे एक ऐसे नेता के रूप में सामने नहीं आए जिसका अहम् इतना बड़ा है कि आम लोग न तो उस तक पहुंच सकते हैं और न वह उन तक पहुंच सकता है।

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मुझे इस विशाल आयोजन में भागीदारी करने का अवसर 3 जनवरी 2023 की सुबह प्राप्त हुआ जब यात्रा दिल्ली पार कर उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश कर रही थी। वहां का दृश्य देखने लायक था। बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे, वे उत्साह से सराबोर थे, नारे लगा रहे थे और गाने गा रहे थे। मुझे सबसे बढ़िया दृश्य वह लगा जब अम्बेडकर के चित्र हाथों में लिए एक समूह यात्रा का हिस्सा बना। राहुल सड़क के दोनों ओर खड़े लोगों का गर्मजोशी से अभिवादन कर रहे थे।

यात्रा के दौरान मुझे उनसे बातचीत करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। उन्होंने मुझसे कहा कि यह यात्रा उनके लिए एक तपस्या है। मैंने जवाब में कहा कि विघटनकारी राजनीति और आर्थिक समस्याओं से लोगों को जो परेशानियां भोगनी पड़ रही हैं, उन्हें उस आंदोलन या कार्यक्रम के केन्द्र में रखा जाना चाहिए जो इस यात्रा से उपजेगा। उनके हाव-भाव और व्यवहार को देखकर मुझे लगा कि वे आम लोगों के सरोकारों से गहरे तक जुड़े हुए हैं। मैंने उनसे कहा कि पिछले एक दशक में अल्पसंख्यकों के हालात बिगड़े हैं और इस समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने इस पर सहमति जताई।

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अगर हम एक बड़े कैनवास पर सोचें तो इसमें कोई शक नहीं कि इस यात्रा ने विघटनकारी आख्यान के प्रभुत्व को चुनौती दी है। इस साहसिक पहल से साम्प्रदायिक आख्यान का मुकाबला करने में मदद मिल रही है और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जिन मूल्यों से हमारी राजनीति संचालित होती थी उनकी वापसी हो रही है। ऐसी रिपोर्ट हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि इस यात्रा ने मुसलमानों के घावों पर भी मरहम लगाई है।

एक प्रश्न यह है कि क्या इस यात्रा का संदेश पूरे देश तक जा सकता है? कारण यह है कि इस विशाल आयोजन का समाज के एक बड़े हिस्से पर अपेक्षाकृत कम प्रभाव पड़ा है। प्रश्न यह भी है कि क्या इस यात्रा से कांग्रेस में मंथन होगा, पार्टी अपने आपको नया स्वरूप देगी और अपनी कमजोरियों को दूर करेगी। क्या कांग्रेस चुनावी लड़ाईयों को बेहतर ढंग से लड़ने में सक्षम हो सकेगी। क्या उन लाखों लोगों, जिन्होंने अलग-अलग स्थानों और समय पर इस यात्रा में भागीदारी की है, की आवाज हमारे देश की अन्तरात्मा को छू सकेगी और सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या इस बेजोड़ प्रयास से कांग्रेस एक राष्ट्रीय गठबंधन का केन्द्रक बन सकेगी- ऐसा राष्ट्रीय गठबंधन जो समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद का पैरोकार हो, ना कि हिन्दुत्व-हिन्दू राष्ट्रवाद का, जो केवल कुछ तबकों को भारतीय मानता है।

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ऐसे कई विपक्षी दल हैं जो पिछले एक दशक में उभरी विचलित करने वाली प्रवृत्तियों से चिंतित हैं, परंतु उनके लिए केवल औपचारिकता के लिए अनमने भाव से यात्रा से जुड़ना काफी नहीं होगा। आगे आने वाले चुनावी युद्धों में विपक्ष को अपनी ताकत दिखानी होगी। यह भी जरूरी है कि हमारे देश के संघीय ढांचे को मजबूत किया जाए और ऐसी आर्थिक नीतियां बनाई जाएं जो लोगों को 'लाभार्थी' बनाने के बजाए उन्हें उनके अधिकार दें।

निर्णय जनता की अदालत को करना है। आम लोग निःसंदेह उस व्यक्ति के साथ जुड़े हैं जिसे कुछ समय पहले तक पप्पू और बाबा कहा जाता था। आज जिस परिपक्वता के साथ राहुल गांधी अपनी बात कह रहे हैं और जिस तरह वे लोगों से जुड़े मुद्दे उठा रहे हैं वह देखने लायक है। कई नागरिक समाज समूह अलग-अलग आधारों पर कांग्रेस के पिछले निर्णयों और कार्यकलापों की निंदा और विरोध करते आए हैं और ऐसा भी नहीं है कि यह आलोचना निराधार थी परंतु आज की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि वर्तमान निजाम को बदला जाए ताकि देश उस राह पर चल सके जिसकी बात राहुल गांधी की यात्रा में की जा रही है।

तपस्वी के साथ कुछ कदम चलने से मुझमें देश के भविष्य के प्रति नई आशा का संचार हुआ।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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