विचार

निगरानी तंत्र की मजबूरी और नाकामी अडानी मामले जैसी ही रही, तो कैसे पूरा होगा विश्व गुरु बनने का सपना

वे भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाना चाहते हैं लेकिन उसके लिए व्यवस्था को भी एक मानक गढ़ना होगा। अगर निगरानी तंत्र की विवशता और विफलता ऐसे ही बनी रहती है जैसी अडानी के मामले में अब तक दिख रही है, तो यह सपना हकीकत में उतरने से रहा।

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ऐसा पहले भी हो चुका है। व्यवसाय बढ़ता है, संपर्क बनते हैं, राजनीतिक संरक्षण मिलता है और फिर लगता है कि कुछ भी करके बेदाग निकला जा सकता है।

यह खेल थोड़े ही समय का होता है। झूठा गर्व, आसमानी आंकड़े और बेतहाशा प्रचार अपने साथ अजेय होने की भावना लाते हैं। इसके बाद बारी आती है दुस्साहस की। दुनिया उसकी जय-जयकार करती दिखती है। तारीफों के पुल बांधे जाते हैं और कहा जाता है कि वह सफलता के नए मायने तय कर रहा है।

फिर आती है गिरावट।

हमारे पास इस तरह की आसमानी सफलता के बाद घोटाले साबित होने वाले व्यवसायों की लंबी सूची है। समय के साथ वे बड़े होते जाते हैं और कायदे-कानून का उल्लंघन आम बात हो जाती है। यह बुरे शासन का एक और उदाहरण है जिसे घटिया नियामक व्यवस्था और भी बदतर बना देती है। इसका नतीजा चारों ओर देखा जा सकता है- एक समय 10 लाख करोड़ के आंकड़े को पार करती गैर-निष्पादित संपत्ति, खस्ताहाल सार्वजनिक सेवाएं, परियोजनाओं में देरी और ऐसी नौकरशाही जो आम लोगों के लिए कम और ताकतवरों के लिए ज्यादा काम करती है।

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घोटालों के होने, व्यवसाय में लालच के प्रभावी होने और कुछ मामलों में इसके हद से गुजर जाने से उतनी हैरानी नहीं होती जितनी इस बात से कि आम लोगों की आंखों के सामने बेपर्दा हो चुके मामलों में भी सत्ता कोई भी कार्रवाई करने में इतनी लाचार हो सकती है?

इसलिए अडानी मामले में आज सवाल यह नहीं है कि इसमें राजनीतिक प्रतिष्ठान और सरकार किस हद तक शामिल हैं क्योंकि इस तरह का कोई भी सवाल राजनीति आरोपों-प्रत्यारोपों के शोर में दब जाता है। सवाल तो यह है कि आखिर कब सत्ता निष्क्रयता की चादर को उतारकर ऐक्शन मोड में आएगी? यह समय इस तरह के स्पष्ट संकेत देने का है कि रिश्ते चाहे जैसे भी हों, नियम-कानूनों के घोर उल्लंघन के आरोपों के मामले में- कम से कम जब वे सार्वजनिक हो जाएं- सरकार सक्रिय होगी, जांच होगी और सख्त से सख्त कार्रवाई भी होगी। अडानी मामले में वह समय आ चुका है। सरकार के पास विकल्प है- वह आराम से हाथ पर हाथ रखकर बैठ सकती है या वह हिंडनबर्ग रिसर्च के शब्दों में ‘दुनिया के तीसरे सबसे अमीर आदमी द्वारा किए गए कॉर्पोरेट इतिहास के सबसे बड़े घोटाले’ में नियामकों के जरिये कार्रवाई को होने दे सकती है और विभिन्न एजेंसियों से इसकी तहकीकात करा सकती है।

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यह सोचना गलत होगा कि हिंडनबर्ग के आरोपों के बाद अडानी के शेयरों के जमीन सूंघने की वजह से समूह के मार्केट कैप (बाजार पूंजीकरण) में अचानक आई 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की गिरावट को, सरकार के समर्थन अथवा इस तरह के संकेतों से कि अडानी समूह पर अब भी राजनीतिक नेतृत्व का ‘आशीर्वाद’ बना हुआ है, थामा जा सकता है।

विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रहे एक ऐसे समूह ने जिसकी दस सूचीबद्ध कंपनियों पर निक्केई एशिया के मुताबिक 3.39 खरब रुपये (41.1 अरब डॉलर), यानी पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था के 1.2 फीसद के बराबर की देनदारी हो, देश को किस तरह के संकट में डाल दिया है और इसके क्या मायने हो सकते हैं, इस बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

दरअसल, ‘अडानी की कहानी’ अडानी के विफल होने की नहीं बल्कि भारत के असफल होने की कहानी है, भले ही निकट भविष्य में समूह के शेयर पटरी पर लौट आएं। यह 1991 में शुरू हुए एक ऐसे उदारीकरण कार्यक्रम की कहानी है जो बुरे मायने में इस वजह से अपनी हदों तक पहुंच गई क्योंकि कुछ लोगों ने इसे बंधक बना लिया जो जोखिमों से भरी उद्यमिता की सही पहचान को मिटाकर इसे राजनीतिक संरक्षण में फलने-फूलने वाली वैसी गतिविधि में तब्दील कर दिया जिसमें दांव लगाना एक सुरक्षित काम है। कुछ चुनिंदा लोगों के लिए सुरक्षित सौदे की इस व्यवस्था की वजह से हमारे समय में ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ जैसे शब्दों का जन्म हुआ है।

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यह वह भारत नहीं है जो आर्थिक सुधारों को बनाए रख सकता है। ऐसे व्यवसाय जो सुधारों को बदनाम करते हैं और निजी क्षेत्र में भारतीयों के पहले से ही कमजोर भरोसे को और कम करते हैं, वे फिर से खड़े होने की कोशिश कर रहे भारत का भविष्य नहीं हो सकते। यह समय एक बार फिर यह समझने का है कि कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन की बड़ी वजह यह थी कि आम लोगों का भरोसा नीतियां बनाने वालों और निजी क्षेत्र पर बहुत घट गया है। इसका एक उदाहरण भाजपा नेता और पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक का कृषि कानूनों के खिलाफ मुंह खोलना और यह सवाल उठाना था कि कृषि कानूनों के आते ही अडानी ने गोदामों के लिए जमीन का अधिग्रहण कैसे कर लिया?

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वैसे भी, विकास के इस चरण में भारत में लोगों को निजी क्षेत्र में उतना भरोसा नहीं। 2016-17 के लिए भारत का आर्थिक सर्वेक्षण बताता है: ‘भारत में अस्पष्टता (निजी क्षेत्र और संपत्ति के अधिकारों के मामले में) कहीं ज्यादा दिखती है... ऐसा लगता है कि भारत में खास तौर पर बाजार-विरोधी मान्यताएं हैं।’ कुल मिलाकर कहें तो अडानी ने सत्ता वालों के लिए जो भी किया हो, सत्ता के लिए यह फैसला करने का वक्त आ गया है कि अब तो जालों की सफाई करनी ही होगी और कुछ बुरे खिलाड़ियों को मैदान से बाहर करना पड़ेगा। अगर इस तरह के तत्वों को ज्यादा देर तक बेरोकटोक छोड़ा गया तो देश के लिए इसकी कीमत बहुत अधिक होगी।

इसमें संदेह नहीं कि भारत इकलौता ऐसा देश नहीं जहां घोटाले होते हों। अमेरिकी अर्थव्यवस्था बड़े-बड़े घपलों के लिए जानी जाती है- थेरानोस, मैडॉफ, एनरॉन… सूची लंबी है। अमेरिकी मीडिया ने पहले तो एनरॉन के लिए रेड कार्पेट बिछाया और बाद में उससे जमीन पर ला पटका। एक भावी मीडिया दिग्गज अडानी अब मीडिया के वैसे धड़े के निशाने पर आ गए हैं जिसने अडानी समूह से किनारा कर लिया था या जो ढके-छिपे तरीके से उसकी तारीफ कर रहा था। बहरहाल, अडानी आज कई समस्याओं से घिरे हैं और उनकी रातों की नींद खराब करने वाले कारणों में दो हैं- ‘बुरा’ प्रेस और आक्रामक विपक्ष।

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एक बार फिर अमेरिका और एनरॉन की बात। 2001 के दौर में यह अमेरिका में दिवालियापन का अपने तरह का सबसे बड़ा मामला था। दिवालिएपन से पहले अमेरिकी मीडिया उसके लिए चीयर लीडर्स की तरह काम कर रहा था। मीडिया दिग्गज एनरॉन पर पुरस्कारों की बरसात कर रहा था। अप्रैल 2000 के अंक में ‘फॉर्च्यून’ पत्रिका ने तारीफ के कशीदे पढ़े: ‘एक देहाती डिनर डांस की कल्पना करें जिसमें बूढ़े लोगों का झुंड पत्नियों के साथ आधे-अधूरे मन से नाच रहा हो… अचानक उनके बीच आकाश से सुनहरे लिबास पहने, हाथों में चमकदार गिटार लिए नौजवान एल्विस उतरता है और अपने कुल्हे घुमा-घुमाकर नाचने लगता है… बिजली कंपनियों की शांत दुनिया में, एनरॉन कॉर्प हलचल लाने वाला वही एल्विस है।’

लेकिन जब धोखाधड़ी का खुलासा हुआ तो एनरॉन के शीर्ष अधिकारियों को दोषी ठहराकर जेल में डाल दिया गया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि कंपनी के अध्यक्ष केन ले अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के बेहद करीबी थे और उन्हें बुश के चुनाव अभियान के फंडर के तौर पर जाना जाता था या कंपनी के सीईओ जेफ स्किलिंग एक बहुत ही अच्छी पहुंच वाले व्यक्ति थे और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के ताकतवर नेटवर्क का हिस्सा थे। अमेरिकी नियामकों ने बेधड़क कार्रवाई की। तेजी से इंसाफ हुआ। अमेरिका में जब भी किसी व्यवसायी ने हदों का पार किया है, लगभग हर बार ऐसा ही हुआ है। हालांकि भारत में आम तौर पर ऐसा नहीं हुआ है और इसी वजह से अडानी समूह जितना नुकसान कर सकता है, उससे कहीं बड़ा नुकसान व्यवस्था को पहुंचा है।

(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर में फैकल्टी हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)

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