शख्सियत

शहनाई के जादूगर बिस्मिल्लाहः रोम-रोम में बसती थी काशी और गंगा, ठुकरा दिया था अमेरिका का प्रस्ताव

बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को जन्मे उस्ताद ने अमेरिका, कनाडा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और ईरान जैसे देशों में भी शहनाई का जादू बिखेरा। उनकी आखिरी इच्छा थी कि वे इंडिया गेट पर शहीदों को शहनाई बजाकर श्रद्धांजलि दें, लेकिन यह पूरी नहीं हो सकी।

शहनाई के जादूगर बिस्मिल्लाहः रोम-रोम में बसती थी काशी और गंगा, ठुकरा दिया था अमेरिका का प्रस्ताव
शहनाई के जादूगर बिस्मिल्लाहः रोम-रोम में बसती थी काशी और गंगा, ठुकरा दिया था अमेरिका का प्रस्ताव फोटोः सोशल मीडिया

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जब शहनाई बजाते थे तो मानो गंगा की धारा बह उठती थी। छोटे से वाद्ययंत्र के छिद्रों पर उनकी जादुई पकड़ ने शहनाई को भारत की आत्मा और बनारस की पहचान बना दिया और उन्हें 'भारत रत्न' की उपाधि दिलाई। उस्ताद के लिए सबसे बड़ा सम्मान गंगा के घाट और बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी थी। यही कारण है कि जब उन्हें अमेरिका में बसने का प्रस्ताव मिला, तो उन्होंने बड़ी सहजता से जवाब दिया, "अमेरिका में आप मेरी गंगा कहां से लाओगे?”

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में हुआ था। छह साल की उम्र में वह अपने मामा अली बख्श के पास वाराणसी आ गए, जो काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते थे। यहीं से उस्ताद ने शहनाई को अपना पहला प्यार बनाया। रोजाना छह घंटे रियाज और बालाजी मंदिर के सामने बैठकर साधना ने उनकी शहनाई को वह जादू दिया, जिसने 1937 में ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में पहली बार दुनिया को मंत्रमुग्ध किया। चैती, ठुमरी, कजरी, होरी और सोहर जैसे लोक संगीत को शहनाई के माध्यम से उन्होंने नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

विनम्र इतने कि अपने से जूनियर कलाकारों पर भी स्नेह रखते थे। पद्मश्री और जलतरंग वादक डॉ. राजेश्वर आचार्य उस्ताद को 'बनारस की संस्कृति का सच्चा प्रतीक' बताते हैं। उन्होंने कहा, "उस्ताद सभी धर्मों और विचारों के प्रति समान भाव रखते थे। काशी का मूल स्वभाव आनंद है और उस्ताद ने अपनी शहनाई से बाबा विश्वनाथ को यह आनंद अर्पित किया।" आचार्य ने एक किस्सा भी साझा किया, जिसके अनुसार उस्ताद चाहते थे कि शहनाई को विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का विषय बनाया जाए। जब आचार्य ने यह सुझाव दिया, तो उस्ताद ने इसका समर्थन करते हुए कहा कि शहनाई को गुरु-शिष्य परंपरा से आगे बढ़ाकर व्यापक स्तर पर पढ़ाया जाना चाहिए।

उस्ताद का बनारस, गंगा और बाबा विश्वनाथ से गहरा लगाव था। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, "सुरीला बनना है तो बनारस चले आओ, गंगा किनारे बैठो, क्योंकि बनारस के नाम में ही 'रस' है।" चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर हो, बालाजी मंदिर हो या गंगा घाट, उस्ताद को वहां शहनाई बजाने में सुकून मिलता था। मुहर्रम हो या मंदिर का उत्सव, उनकी शहनाई हर मौके को अधूरा नहीं रहने देती थी।

वह एक गुणी कलाकार के साथ खाटी बनारसी भी थे। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “जब सच्चा सुर लग जाएगा तो समझिएगा कि हम बाबा विश्वनाथ की शरण में पहुंच गए। चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर हो या बालाजी मंदिर या फिर गंगा घाट, यहां शहनाई बजाने में एक अलग ही सुकून मिलता है।”

उनको अमेरिका में बसने का भी ऑफर दिया गया था। लेकिन, वह भारत को नहीं छोड़ सकते थे। यहां तक कि बनारस छोड़ने के ख्याल से ही वह व्यथित हो जाते थे। बिस्मिल्लाह खान ने इस प्रस्ताव को बेहद विनम्रता के साथ यह कहकर ठुकरा दिया था कि, ''अमेरिका में आप मेरी गंगा कहां से लाओगे?''

उस्ताद ने न केवल भारत, बल्कि अमेरिका, कनाडा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और ईरान जैसे देशों में अपनी शहनाई का जादू बिखेरा। उस्ताद को पद्मश्री (1961), पद्म भूषण (1968), पद्म विभूषण (1980) और भारत रत्न (2001) से सम्मानित किया गया। उनकी आखिरी इच्छा थी कि वे इंडिया गेट पर शहीदों को शहनाई बजाकर श्रद्धांजलि दें, लेकिन यह पूरी नहीं हो सकी। 21 अगस्त 2006 को 90 साल की उम्र में वे दुनिया से रुखसत हो गए।

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