ये वह मौसम है जिसका इंतजार सभी बहुत शिद्दत से करते हैं। माना जाता है कि मानसून बरसता है, तो उसकी बूंदों की खनक खेत-खलिहान, हाट-बाजार से लेकर अर्थव्यवस्था तक सुनाई देती है। लेकिन उम्मीदों का यह मौसम अब आपदा के रौद्र रूप में बदलता जा रहा है।
इस बार जब मानसून के घने बादल हिमालयी राज्यों में पहुंचने शुरू हुए, तभी से बुरी खबरें आनी शुरू हो गईं। मानसून ने हिमाचल प्रदेश में 20 जून को दस्तक दी। 25 दिन बाद 15 जुलाई तक राज्य के विभिन्न जिलों में 17 भूस्खलन, 22 बादल फटने और 31 फ्लैश फ्लड यानी औचक बाढ़ की घटनाएं हो चुकी थीं। तब से लगातार तेज बारिश का रेड अलर्ट या ऑरेंज अलर्ट जारी हो रहा है। प्रदेश का कोई इलाका नहीं जहां से आपदा और तबाही की खबरें न आई हों।
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अभी तक हिमाचल में मौसम की वजह से हुए हादसों में बादल फटने की 45 घटनाएं और सौ से ज्यादा औचक बाढ़ एवं बडे भूस्खलन शामिल हैं। इनसे पानी का जो बहुत प्रबल प्रवाह बनता है, वह रास्ते में आने वाली हर चीज को बहाकर ले जाता है।
तबाही की कहानी कहते मलबे के ऐसे ढेर आपको राज्य के कई हिस्सों में दिख जाएंगे। राज्य की 1359 से ज्यादा सड़कें अभी तक बंद पड़ी हैं। इनमें कई ऐसे राष्ट्रीय राजमार्ग हैं जो या तो फोर लेन में बदल दिए गए हैं या बदले जा रहे हैं। वे राजमार्ग जिन्हें राज्य के कायाकल्प के वादे के साथ यहां लाया गया था। अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि तबाही का एक बड़ा कारण ये चौड़ी सड़कें और उन्हें बनाने का तरीका भी है।
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जून के आखिरी सप्ताह में चौड़े किए जा रहे राष्ट्रीय राजमार्ग के पास एक पांच मंजिला इमारत ध्वस्त हो गई थी। उसके बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने इस मुद्दे को उठाया भी था। उनका कहना था कि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण यानी एनएचएआई सड़क बनाने के लिए जिस तरह पहाड़ को काट रहा है, उसके चलते ऐसे हादसे बढ़ रहे हैं। हादसों और शिकायतों का केन्द्र सरकार के नीति नियामकों पर कोई असर पड़ा हो, ऐसे संकेत अभी तक नहीं हैं। ॉ
पड़ोसी उत्तराखंड भी अतिवृष्टि से होने वाली आपदाओं से घिरा हुआ है। पांच अगस्त को उत्तरकाशी की खूबसूरत हरसील घाटी के गांव थराली में बहने वाली खीर गाद में औचक बाढ़ आई। मलबे के साथ आया यह तेज बहाव देखते ही देखते उस इलाके में पहुंच गया जहां बहुत से होटल बना दिए गए थे। थोड़ा आगे ही सेना का शिविर भी था। तेज बहाव ने कई इमारतों को पूरी तरह खत्म कर दिया। मरने वालों में स्थानीय लोगों के अलावा पर्यटक और सेना के जवान भी थे।
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इस आपदा का विश्लेषण अभी हो ही रहा था कि चमोली शहर के थराली में बादल फटा। थराली बाजार और उसके नीचे के इलाकों का काफी हिस्सा इससे आई बाढ़ की चपेट में ध्वस्त हो गया। जिन इमरातों को नुकसान पहुंचा, उनमें चमोली के सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट का आवास भी था।
तेज बरसात से अलकनंदा का प्रवाह बढ़ा, तो बदरीनाथ नेशनल हाईवे का एक हिस्सा ध्वस्त हो गया। कई तीर्थयात्रियों को निकाल लिया गया, लेकिन आखिरी समाचार मिलने तक बहुत सारे तीर्थयात्री अभी तक वहां फंसे हैं। इस बीच, राज्य के तकरीबन हर पर्वतीय जिले से भूस्खलन की खबरें भी लगातार आ रही हैं। एक सितंबर को पिथौरागढ़ में आए बड़े भूस्खलन के बाद मलबे ने धौलीगंगा पावर स्टेशन की सुरंग का मुंह बंद कर दिया है। कुछ लोग अभी भी अंदर फंसे हुए हैं।
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हादसों से घिरे इस राज्य में संवेदनशील पर्यावरण को बचाने की गंभीर चर्चा कहीं नहीं है, सारा विमर्श यूनीफाॅर्म सिविल कोड पर ही चल रहा है। थराली हादसे के दो दिन बाद ही राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी देहरादून के पलटन बाजार की दुकानों पर ‘स्वदेशी अपनाएं‘ का स्टिकर चिपका रहे थे।
जम्मू कश्मीर के हालात भी अलग नहीं हैं। 14 अगस्त को किश्तवाड़ के चशौती गांव के ऊपर पहाड़ों पर बादल फटा। तेजी से नीचे आता मलबा उस जगह पहुंचा जो मछेल माता मंदिर की तीर्थ यात्रा का रूट है। कई स्थानीय लोग और तीर्थयात्री इसकी चपेट में आए। इनमें से 65 की जान चली गई। कुछ दिन बाद ही ऐसा ही हादसा वैष्णों देवी यात्रा रूट पर हुआ। वहां भी बादल फटा और फिर भूस्खलन हुआ। इस हादसे में 34 तीर्थयात्रियों की जान गई। उत्तरखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर की सभी तीर्थयात्राएं फिलहाल रोक दी गई हैं।
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चाहे बादल फटे, फ्लैश फ्लड आए या अतिवृष्टि हो, सारा पानी आखिर में पहाड़ों से उतर कर मैदान में आता है। हिमाचल से निकली नदियां जब पंजाब पहुंची, तो आपदा भी पहाड़ों से उतर कर वहां के मैदानों में पसर गई। अबोहर का एक गांव है सैयादवाला। बाढ़ का पहला शिकार अबोहर श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसा यह गांव बना। ॉ
एक अगस्त को यहां पानी भरना शुरू हुआ, एक महीने से ज्यादा बीत गया, अभी भी इस गांव में पानी भरा है। गांव के 1,177 परिवार राहत शिविरों में रह रहे हैं। थोड़े ही दिनों बाद फाजिल्का, फिरोजपुर, तरन-तारन सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित जिलों में थे। मालवा की इस कपास बेल्ट में ज्यादातर फसल बरबाद हो चुकी है। बाकी जगह धान की फसल ज्यादातर खराब हो चुकी है।
इसके बाद नंबर आता है अजनाला का, जहां पानी शहर तक पहुंच चुका है। राज्य के सभी 23 जिले इस समय बाढ़ की चपेट में हैं। कई प्रसिद्ध गुरुद्वारे भी पानी में डूबे हैं और उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर हो रही हैं।
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पहाड़ की नदियां जहां मैदान में उतरती हैं, वहां बड़े-बड़े जलाशय हैं और बांध बनाए गए हैं। इन बांधों और जलाशयों में पानी जब खतरे के निशान से ऊपर पंहुचा, तो फ्लड गेट खोलने के अलावा कोई चारा नहीं था। पांच सितंबर को पोंग बांध में पानी का स्तर खतरे के निशान से पांच फीट ऊपर था और वहां पानी 2.75 लाख क्यूसेक की दर से पंहुच रहा था।
इसी समय भाखड़ा बांध में पानी 1.25 लाख और रणजीत सागर बांध में 1.31 लाख क्यूसेक की दर से पहुंच रहा था। पानी का दबाव इतना तेज था कि पठानकोट के पास रावी नदी पर बने माधोपुर हेडवक्र्स के गेट टूट गए और इसका पानी अचानक ही उन बहुत सारे गांवों में पहुंच गया जो इसके लिए तैयार नहीं थे।
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अब सतलज नदी अपने किनारों से दस किलोमीटर आगे तक फैल गई है। अगस्त के अंत में ब्यास नदी में पानी का प्रवाह 2.30 लाख क्यूसेक था जबकि सामान्य दिनों में यह 14,400 क्यूसेक होता है। पंजाब में नदियों से निकले वाली सिंचाई नहरों का भी एक पूरा जाल है। आम दिनों में खेतों की प्यास बुझाने वाली नहरें बरसात में यह बाढ़ का पानी उन गावों तक ले जाती हैं जो नदियों से बहुत दूर हैं।
बाढ़ के लिए सिर्फ पहाड़ों से आया पानी ही जिम्मेदार नहीं था। पंजाब में भी लगातार अतिवृष्टि हो रही है। रविवार को लुधियाना में कुछ ही घंटों के भीतर 216 मिलीमीटर बारिश हो गई। इतनी बारिश किसी भी शहर को डुबो देने के लिए काफी होती है।
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हिमाचल की तरह पंजाब में भी एनएचएआई के काम पर सवाल उठाए जा रहे हैं। एक संसदीय समिति ने उससे यह सफाई मांगी है कि उसने सड़कों को सतह ये ऊंचा क्यों बनाया, जबकि इसकी वजह से पानी का प्रवाह कई जगह रुक गया। गुरदासपुर के कांग्रेस सांसद सुखजिंदर सिंह रंधावा ने करतारपुर साहिब काॅरीडोर में बाढ़ के लिए एनएचएआई को जिम्मेदार ठहराया है। उनका कहना है कि सड़कों के नीचे से पानी निकल सके, इसके लिए रास्ते ही नहीं छोड़े गए।
बेशक यह आपदा प्राकृतिक है, लेकिन क्या इससे बचा जा सकता था? बरसात से काफी पहले बाढ़ से निपटने की जो कोशिशें की जाती हैं, वे समय रहते नहीं हुईं? इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि बाढ की तैयारियों के लिए फरवरी में बैठक होती है। इस बार यह बैठक नहीं हुई क्योंकि तब दिल्ली का चुनाव चल रहा था और पूरी पंजाब सरकार वहीं सक्रिय थी। यह बैठक हुई जून में, जब बहुत कुछ करने का समय ही नहीं बचा था।
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बाढ़ का समय तत्काल राहत पहुंचाने का होता है। इसे लेकर पंजाब में राजनीति जोरों पर है। मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने अपना सरकारी हैलीकाॅप्टर राहत कार्य के लिए दे दिया है। द ट्रिब्यून की एक खबर के अनुसार, इसका इस्तेमाल आम आदमी पार्टी के स्थानीय नेता और विधायक कर रहे हैं। जब वे बाढ़ राहत के लिए निकलते हैं, तो उनके साथ राहत सामग्री के अलावा एक कैमरामैन जरूर होता है। हैलीकाप्टर से राहत सामग्री पहुंचाते नेताओं की तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी शेयर हो रही हैं।
सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब चीन से लौटे, तो सबसे पहले उन्होंने भगवंत सिंह मान से टेलीफोन से बात की। यह पहला मौका है जब प्रधानमंत्री ने मान से इस तरह बात की होगी। एक दिन पहले उन्होंने मन की बात कार्यक्रम में भी बाढ़ की चर्चा की थी। उसके पहले तक किसी भी केन्द्रीय मंत्री ने न तो आपदाग्रस्त पंजाब और न ही हिमाचल का कोई दौरा किया या कोई पक्का आश्वासन ही दिया।
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प्रधानमंत्री ने सहयोग का आश्वासन भी दिया होगा। मुख्यमंत्री मान ने केन्द्र से 60,000 करोड़ रुपये की मदद मांगी है। केन्द्र ने अभी इस पर एक शब्द भी नहीं कहा। अंतरिम मदद के नाम पर केन्द्र ने जो रकम पंजाब को दी है, वह तीन सौ करोड़ रुपये से कम है। हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू पूरे राज्य को आपदाग्रस्त घोषित करने की मांग कर रहे हैं। ऐसी कोई मांग उत्तराखंड से नहीं आई। आपदा राहत के नाम पर राजनीतिक भेदभाव कैसे होता है, इसे हम पहले भी देख चुके हैं।
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इस बीच, यमुना नदी भी उफान पर है। हरियाणा के हथिनी कुंड में पानी खतरे के निशान से ऊपर पहुंचा, तो ताजेवाला बैराज के गेट खोल दिए गए। यह पानी करनाल, पानीपत, सोनीपत के गांवों से होता हुआ दिल्ली तक पहुंच चुका है और राजधानी के कुछ निचले इलाके डूब गए हैं। इनमें अंतरराज्यीय बस अड्डा समेत नई दिल्ली के कुछ हिस्से भी हैं। उधर, टांगड़ी, घग्गर और मारकांडा का पानी अपने किनारों को छोड़ अंबाला और कृरुक्षेत्र जिलों के कई गांवों और कस्बों में घुसना शुरू कर चुका है।
अब हर साल आने वाली यह बाढ़ कई सवाल खड़े करती है। पहाड़ों पर सड़कें बनाते समय भौगोलिक स्थिरिता का ध्यान क्यों नहीं रखा जाता? पंजाब में बाढ़ तैयारियों की बैठक जून महीने तक क्यों टलती रही? बाढ़ राहत के लिए जरूरत से ज्यादा राजनीतिक समीकरण क्यों अहम हो जाते हैं?
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